पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/६४

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गोस्वामी तुलसीदास

साउ। चपत चरचाउ। ६० गोस्वामी तुलसीदास कपि-सेवा बस भए कनाड़े, कह्यौ पवन सुत दैबे को न कछू ऋलिया हौं, धनिक तू पत्र लिखाउ ॥ अपनाए सुनोव-विभीवन तिन न तज्यो छल-छाउ । भरत-सभा सनमानि सराहत होत न हृदय अघाउ॥ विज करुना-करतूति भगत पर सकृत प्रनाम सुनत जस बरनन सुनत कहत "फिरि गाउ" । इस दया, इस क्षमा, इस संकोच-भाव, इस कृतज्ञता, इस विनय, इस सरलता को राम ऐसे सर्व-शक्ति-संपन्न आश्रय में जो लोकोत्तर चमत्कार प्राप्त हुआ है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। शोल और, शक्ति के इस संयोग में मनुष्य ईश्वर के लोकपालक रूप का दर्शन करके गद्गद हो जाता है। जो गद्गद न हो, उसे मनुष्यता से नीची कोटि में समझना चाहिए। असामर्थ्य के योग में इन उच्च वृत्तियों के शुद्ध स्वरूप का साक्षात्कार नहीं हो सकता। राम में शोल की यह अभिव्यक्ति आकस्मिक नहीं-अवसर-विशेष की प्रवृत्ति नहीं-उनके स्वभाव के अंतर्गत है, इसका निश्चय कराने के लिये बाबाजी उसे 'सिसुपन' से लेकर अंत तक दिखाते हैं। यह सुशीलता राम के स्वरूप के अंतर्गत है। जो इस शील-स्वरूप पर मोहित होगा, वही राम पर पूर्ण रूप से मुग्ध हो सकता है। भगवान् का जो प्रतीक तुलसीदासजी ने लोक के सम्मुख रखा है, भक्ति का जो प्रकृत आलंबन उन्होंने खड़ा किया है, उसमें सौंदर्य, शक्ति और शील तीनों विभूतियों की पराकाष्ठा है। सगुणोपासना के ये तीन सोपान हैं जिन पर हृदय क्रमश: टिकता हुआ उच्चता की ओर बढ़ता है। इनमें से प्रथम सोपान ऐसा सरल है कि स्त्री- पुरुष, मूर्ख-पंडित, राजा-रंक सब उस पर अपने हृदय को बिना प्रयास अड़ा देते हैं। इसकी स्थापना गोस्वामीजी ने राम के रूप- माधुर्य का अत्यंत मनोहर चित्रण करके की है। शील और शक्ति