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गोस्वामी तुलसीदास

सादर बारहि बार सुभाय चितै तुम त्यों हमरो मन मोहैं।"
पूछति ग्रामवधू सिय सौ "कही साँवरे से, सखि, रावरे को हैं?"

"चितै तुम त्यौं हमरो मन मोहैं। कैसा भाव-गर्भित वाक्य है! इसमें एक और तो राम के आचरण की पवित्रता और दूसरी ओर ग्राम-वनिताओं के प्रेमभाव की पवित्रता दोनों एक साथ झलकती हैं। राम सीता की ओर ही देखते हैं, उन स्त्रियों की ओर नहीं। उन स्त्रियों की ओर ताकते तो वे कहतीं कि "चितै हम त्यौं हमरो मन मोहैं"। उनके मोहित होने को हम कुछ कुछ कृष्ण की चित- वन पर गोपियों के मोहित होने के समान ही समझते। अतः 'हम' के स्थान पर इस 'तुम' शब्द में कोई स्थूल दृष्टि से चाहे 'असंगति' का ही चमत्कार देख संतोष कर ले, पर इसके भीतर जो पवित्र भाव-व्यंजना है, वही सारे वाक्य का सर्वस्व है।

इस सौंदर्य-राशि के बीच में शील की थोड़ी सी मृदुल आभा भी गोस्वामीजी दिखा देते हैं——

सुनि सुचि सरल सनेह सुहावने ग्राम-बधुन्ह के बैन।
तुलसी प्रभु तरु-तर बिलॅब, किए प्रेम-कनौड़े कै न॥

यह 'सुचि सरल सनेह' तुरंत समाप्त नहीं हो गया, बहुत दिनों तक बना रहा-कौन जाने जीवन भर बना रहा हो। राम के चले जाने पर बहुत दिनों पीछे तक, जान-पहचान न होते हुए भी, उनकी चर्चा चलती रही——

बहुत दिन बीते सुधि कछु न लही।

गए जे पथिक गोरे साँवरे सलोने, सखि! संग नारि सुकुमारि रही।
जानि-पहिचानि बिनु आपु ते, आपुने हू ते, प्रानहूँ ते प्यारे प्रियतम उपही।
बहुरि बिज्ञाकिबे कबहुँक कहत, तनु पुलक, नयन जलधार बही॥

जिसके सौंदर्य पर ध्यान टिक गया, जिसके प्रति प्रेम का प्रादुर्भाव हो गया, उसकी और बातों में भी जी लगने लगता है।