पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/६५

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शील- साधना और भक्ति

शील-साधना और भक्ति से अलग अकेले सौंदर्य का प्रभाव देखना हो तो वन जाते हुए राम- जानकी को देखने पर ग्राम-वधुओं की दशा देखिए- (क) तुलसी रही हैं ठाढ़ो, पाहन गढ़ी सी काढ़ी, कौन जाने कहाँ ते आई, कौन की, को ही। (ख) बनिता बनी स्यामल गौर के बीच बिलोकहु ग सखि ! मोहि सी है। मग-जोग न, कोमल क्यों च ल हैं ? सकुचाति मही पद-पंकज वै । तुलसी सुनि ग्राम-बधू विथकों, पुलकी तन नौ चले लोचन च्चै । सब भांति मनोहर मोहन रूप, अनूप हैं भूर के बालक द्वै ॥ यह सौंदर्य उन भोली स्त्रियों की दया को कैसा आकति करता है। वे खड़ी खड़ी पछताती हैं कि- पायन तै पनहीं न, पयादेहि क्यों चलि हैं ? सकुचात हियो है। ऐसी अनंत रूपराशि के सामीप्य-लाभ के लिये, उसके प्रति सुहृद्- भाव प्रदर्शित करने के लिये जी ललचता है। ग्रामीण स्त्रियों ने जिनके अलौकिक रूप को देखा, अब उनके वचन सुनने को वे उत्कं- ठित हो रही हैं- धरि धीर कहैं "चलु देखिय जाइ जहाँ सजनी ! रजनी रहिहै। सुख पाइहैं कान सुने बतियाँ, कल श्रापुस में कछु पै कहि हैं।" परिचय बढ़ाने की इस उत्कंठा के साथ 'आत्मत्याग' की भी प्रेरणा आप से आप हो रही है; और वे कहती हैं- "कहि है जग पोच, न सोच कछु, फल लेधन आपन तो लहि हैं।" कैसे पवित्र प्रेम का उद्गार है ! इस प्रेम में काम-वासना का कुछ भी लेश नहीं है। राम-जानकी के दांपत्य-भाव को देख वे गद्गद हो रही हैं- "सीस जटा, उर बाहु घिसाल, बिलोचन लाल, निनीली ही गैहैं ! तून, सरासन, बान धरे, तुलसी बन-मारग में सुठि सोहैं । ,