शील-साधना और भक्ति विरुद्ध है-तब मानों हमने अपने अस्तित्व को जगत् को अर्पित कर दिया। ऐसे लोगों को ही जीवन्मुक्त कहना चाहिए। 'शील' और 'भक्ति' का नित्य संबंध गोस्वामीजी ने बड़ी भावुकता से प्रकट किया है। वे राम से कहते हैं कि यदि मेरे ऐसे पतित से संभाषण करने में आपको संकोच हो, तो मन ही मन अपना लीजिए- प्रन करिहैं। हठि श्राजु ते रामद्वार परयो है । 'तू मेरो' यह बिनु कहे उठिहीं न जनम भरि, प्रभु की सौ करि निवरथो है ।। प्रगट कहत जै सकुचिए अपराध भयो है । तो मन में अपनाइए तुलसिहि कृपा करि कलि बिलोकि इहस्यो हैं।।। फिर यह मालूम कैसे होगा कि आपने मुझे अपना लिया ? गोस्वामीजी कहते हैं- "तुम अपनायो, तब जानिहैं। जब मन फिरि परिहै । सुत की प्रीति, प्राति मीत की, नृप ज्यों डर डरिहै ।। हरषिहै न अति आदरे, निदरे न जरि मरिहै । हानि लाभ दुख सुख सबै सम चित हित अनहित कलि कुचाल परिहरिहै ॥" जब कलि की सब कुचालें छूट जायँ, बुरे कर्मों से मुँह मुड़ जाय, तब समदूं कि मुझे भक्ति प्राप्त हुई। जिस भक्ति से यह स्थिति प्राप्त न हो वह भगवद्भक्ति नहीं; और किसी की भक्ति हो तो हो । गोस्वामीजी की 'श्रुति-सम्मत' हरिभक्ति वही है जिसका लक्षण शील है- प्रीति राम से, नीति पथ चलिय, रागरिसि जीति । तुलसी संतन के मते इहै भगति की रीति ॥ शील हृदय की वह स्थायी स्थिति है जो सदाचार की प्रेरणा भाप से पार करती है। सदाचार ज्ञान द्वारा प्रवर्तित हुआ है या भक्ति द्वारा, इसका पता यो लग सकता है कि ज्ञान द्वारा प्रवर्तित जो सदाचार होगा, उसका साधन बड़े कष्ट से-हृदय को पत्थर के नीचे
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