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पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/७०

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गोस्वामी तुलसीदास दबाकर-किया जायगा; पर भक्ति द्वारा प्रवर्तित जो सदाचार होगा, उसका अनुष्ठान बड़े आनंद से, बड़ी उमंग के साथ, हृदय से होता हुआ दिखाई देगा। उसमें मन को मारना न होगा, उसे और सजीव करना होगा। कर्त्तव्य और शील का वही आचरण सच्चा है जो आनंदपूर्वक हर्षपुलक के साथ हो- रामहिं सुमिरत, रन भिरत, देत, परत गुरु-पाय । तुलसी जिनहि न पुलकतनु ते जग जीवन जाय ॥ शील द्वारा प्रवर्तित सदाचार सुगम भी होता है और स्थायी भी; क्योंकि इसका संबंध हृदय से होता है। इस शील-दशा की प्राप्ति भक्ति द्वारा होती है। विवेकाश्रित सदाचार और भक्ति दोनों में किसका साधन सुगम है, इस प्रश्न को और साफ करके बाबाजी कहते हैं- के तोहि लागहि राम प्रिय, के तू प्रभुप्रिय होहि । दुइ महँ रुचै जो सुगम सो कीबे तुलसी तोहि ॥ या तो तुझे राम प्रिय लगें या राम को तू प्रिय लग, इन दोनों में जो सीधा समझ पड़े सो कर । तुझे राम प्रिय लगें, इसके लिये तो इतना ही करना होगा कि तू राम के मनोहर रूप, गुण, शक्ति और शील को बार बार अपने अंत:करण के सामने रखा कर; बस राम तुझे अच्छे लगने लगेंगे। शोल को शक्ति और सौंदर्य के योग में यदि तू बार बार देखेगा, तो शील की ओर भी क्रमश: आप से आप आकर्षित होगा । तू राम को प्रिय लगे, इसके लिये तुझे स्वयं उत्तम गुणों को धारण करना पड़ेगा और उत्तम कर्मों का संपादन करना पड़ेगा। पहला मार्ग कैसा सुगम है, जो कुछ दूर जाकर दूसरे मार्ग से मिल जाता है और दोनों मार्ग एक हो जाते हैं। ज्ञान या विवेक द्वारा सदाचार की प्राप्ति वे स्पष्ट शब्दों में कठिन बतलाते हैं-