शील-साधना और भक्ति म वह अधर्म कहत कठिन, समुझत कठिन, साधत कठिन बिवेक । होइ घुनाच्छर-न्याय जो पुनि प्रत्यूह अनेक ।। कोई आदमी कुटिल है; सरल कैसे हो ? गोस्वामीजी कहते हैं कि राम की सरलता के अनुभव से । राम के अभिषेक की तैयारी हो रही है। इस पर राम सोचते हैं- जनमे एक संग सब भाई । भोजन, सयन, केलि, लरिकाई ।। बिमल बस यह अनुचित एकू । बंधु बिहाइ बड़ेहि अभिषेकू ।। भक्तशिरोमणि तुलसीदासजी याचना करते हैं कि राम का यह प्रेमपूर्वक पछताना भक्तों के मन की कुटिलता दूर करे- प्रभु सप्रेम पछितानि सुहाई । हरउ भगत-मन के कुटिलाई । राम की ओर प्रेम की दृष्टि पड़ते ही मनुष्य पापों से विमुख होने लगता है। जो धर्म के स्वरूप पर मुग्ध हो जायगा, की ओर फिर भरसक नहीं ताकने जायगा। भगवान् कहते हैं- सनमुख होइ जीव मोहिंजवहीं । जनम कोटि अघ नासहितबहीं ॥ पापवंत कर सहज सुभाऊ । भजन मोर तेहि भाव न काऊ ॥ राम के शील के अंतर्गत "शरणागत की रक्षा" को गोस्वामीजी ने बहुत प्रधानता दी है। यह वह गुण है जिसे देख पापो से पापी भी अपने उद्धार की आशा कर सकता है। ईसा ने भी पापियों को निराश होने से बचाया था। भक्तिमार्ग के लिये यह आशा परम आवश्यक है। इसी "शरण-प्राप्ति की आशा बँधाने के लिये बाबाजी ने कुछ ऐसे पद्य कहे हैं जिनसे लोग सदाचार की उपेक्षा समझते हैं; जैसे- बंधु-वधू-रत कहि कियो बचन निरुत्तर बालि । तुलसी प्रभु सुग्रीव की चितइ न कछू कुचालि ॥ इसी प्रकार गणिका, अजामिल आदि का भी नाम वे बार बार पर उन्होंने भगवान् की भक्त-वत्सलता दिखाने के लिये