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गोस्वामी तुलसीदास

इस नाम-रूपात्मक जगत् के बीच परमार्थ-तत्त्व का शुद्ध स्वरूप पूरा पूरा निरूपित नहीं हो सकता। ऐसे निरूपण में अज्ञान का लेश अवश्य रहेगा; या यों कहिए कि अज्ञान ही के सहारे वह बोधगम्य होगा। अज्ञान् अर्थात् दृश्य जगत् के शब्दों में ही यह निरूपण होगा——चाहे निषेधात्मक ही हो। निषेध मात्र से स्वरूप तक पहुँच नहीं हो सकती। हम किसी का मकान ढूंढ़ने में हैरान हैं। कोई हमें मकान दिखाने के लिये ले चले और दुनिया भर के मकानों को दिखाता हुआ "यह नहीं है", "यह नहीं है" कहकर बैठ जाय तो हमारा क्या संतोष होगा? प्रकृति के विकार अंत- करण की क्रिया के स्वरूप को ही अधिकतर हम ज्ञान या शुद्ध- चैतन्य का स्वरूप समझा-समझाया करते हैं। अत: अज्ञान-रहित ज्ञान बात ही बात है। इसी से गोस्वामीजी ललकारकर कहते हैं कि जो अज्ञान बिना ज्ञान या सगुण बिना निर्गुण कह दे, उसके चेले होने के लिये हम तैयार हैं——

ग्यान कहै अग्यान बिनु, तम बिनु कहै प्रकास।
निग्गुन कहै जो सगुन बिनु, सो गुरु, तुलसीदास॥

हमारा ज्ञान भी अज्ञान-सापेक्ष है। हमारी निर्गुण भावना भी सगुण भावना की अपेक्षा रखती है, ठीक उसी प्रकार जैसे प्रकाश की भावना अंधकार की भावना की अपेक्षा रखती है। मानव-ज्ञान के इस सापेक्ष स्वरूप को देखकर आजकल के बड़े बड़े विज्ञान-विशारद इतनी दूर पहुँचकर ठिठक गए हैं। आगे का मार्ग उन्हें दिखाई ही नहीं पड़ता।

तर्क और विवाद को भी गोस्वामीजी एक व्यसन समझते हैं। उसमें भी एक प्रकार का स्वाद या रस होता है। इस प्रकार के अनेक रस इस संसार में हैं। कोई किसी रस में मग्न है, तो कोई किसी में——