जो जो ओहि जेहि रस मगन तहँ सो मुदित मन मानि।
रस-गुन-दोष बिचारिबो रसिक पहिचानि॥
तुलसीदासजी तो सब रसों को छोड़ भक्तिरस की ओर झुकते हैं और अपनी जीभ से वाद-विवाद का स्वाद छोड़ने को कहते हैं——
बाद-बिबाद स्वाद तजि भजि हरि सरस चरित चित लावहि।
इस रामभक्ति के द्वारा ज्ञानियों का साध्य मोक्ष आप से आप, बिना इच्छा और प्रयत्न के, प्राप्त हो सकता है——
राम भजत सोइ मुक्ति, गुसाई। अनइच्छत प्रावइ परिआई॥
ज्ञानपक्ष में जाकर गोसाईजी का सिद्धांत क्या है, इसका पता लगाने के पहले यह समझ लेना चाहिए कि यद्यपि स्थान स्थान पर उन्होंने तत्त्वज्ञान का भी सन्निवेश किया है, पर अपने लिये उन्होंने कोई एक सिद्धांत-मार्ग स्थिर करने का प्रयत्न नहीं किया है। पहली बात तो यह है कि जब वे भक्तिमार्ग के अनुगामी हो चुके, तब ज्ञानमार्ग ढूँढ़ने के लिये तर्क-वितर्क का प्रयत्न क्यों करने जाते? दूसरा कारण उनकी सामंजस्य-बुद्धि है। सांप्रदायिक दृष्टि से तो वे रामानुजाचार्य के अनुयायी थे ही जिनका निरूपित सिद्धांत भक्तों की उपासना के बहुत अनुकूल दिखाई पड़ा। उपनिषद्-प्रतिपादित "सोऽहमस्मि" और "तत्त्वमसि” आदि अद्वैत वाक्यों की पारमार्थिकता में विश्वास रखते हुए भी——
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। तहँ लगि माया जानेहु भाई॥
कहकर मायावाद का स्वीकार करते हुए भी, कहीं कहीं विशिष्टाद्वैत मत का आभास उन्होंने दिया है, जैसे——
ईश्वर-अंस जीव अबिनासी। चेतन, अमल, सहज, सुखरासी॥
सो मायाबस भयउ गोसाई। बंधेड कीर मरकट की नाई॥
शुद्ध ब्रह्म स्वगत, सजातीय और विजातीय तीनों भेदों से रहित
है। किसी वस्तु का अंश उसका 'स्वगत' भेद है; अत: जीव को ब्रह्म