पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/७९

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तुलसी की काव्य-पद्धति काव्य के दो स्वरूप हमें देखने आते हैं-अनुकृत या प्रकृत (Imitative or realistic) तथा अतिरंजित या प्रगीत (Exag- gerative or lyrical)। कवि की भावुकता की सच्ची झलक वास्तव में प्रथम स्वरूप में ही मिलती है। जीवन के अनेक मर्म- पक्षों की वास्तविक अनुभूति जिसके हृदय में समय समय पर जगती रहती है उसी से ऐसे रूप-व्यापार हमारे सामने लाते बनेगा जो हमें किसी भाव में मग्न कर सकते हैं और उसी से उस भाव की ऐसे स्वाभाविक रूप में व्यंजना भी हो सकती है जिसको सामान्यतः सबका हृदय अपना सकता है। अपनी व्यक्तिगत सत्ता की अलग भावना से हटाकर, निज के योग-लेम के संबंध से मुक्त, करके, जगत के वास्तविक दृश्यों और जीवन की वास्तविक दशाओं में जो हृदय समय समय पर रमता रहता है, वही सच्चा कवि-हृदय है। सच्चे कवि वस्तु-व्यापार का चित्रण बहुत बढ़ा-चढ़ा और चटकीला कर सकते हैं, भावों की व्यंजना अत्यंत उत्कर्ष पर पहुँचा सकते हैं, पर वास्तविकता का आधार नहीं छोड़ते। उनके द्वारा अंकित वस्तु- व्यापार-योजना इसी जगत् की होती है, उनके द्वारा भाव उसी रूप में व्यंजित होते हैं जिस रूप में उनकी अनुभूति जीवन में होती है या हो सकती है। भारतीय कवियों की मूल प्रवृत्ति वास्तविकता की ओर ही रही है। यहाँ काव्य जीवन-क्षेत्र से अलग खड़ा किया केवल तमाशा ही नहीं रहा है। काव्य का दूसरा स्वरूप-अतिरंजित या प्रगीत-वस्तु-वर्णन तथा भाव-व्यंजना दोनों में पाया जाता है। कुछ कवियों की प्रवृत्ति रूपों और व्यापारों की ऐसी योजना की ओर होती है जैसी सृष्टि