पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/८०

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गोस्वामी तुलसीदास के भीतर नहीं दिखाई पड़ा करती। उनकी कल्पना कभी स्वर्ण- कमलों से कलित सुधा-सरोवर के कूलों पर मलयानिल-स्पंदित पाटलों के बीच बिचरती है, कभी मरकत-भूमि पर खड़े मुक्ता-खचित प्रवाल-भवनों में पुष्पराग और नीलमणि के स्तंभों के बीच हीरे के सिंहासनों पर जा टिकती है, कभी सायं प्रभात के कनक-मेखला. मंडित विविध वर्णमय धन-पटलों के परदे डालकर विकीर्ण तारक- सिकता-कणे के बीच बहती आकाश-गंगा में अवगाहन करती है। इस प्रकार की कुछ रूप-योजनाएँ प्राचीन आख्यानों में रूढ़ होकर पौराणिक (Mythological) हो गई हैं और मनुष्य की नाना जातियों के विश्वास से संबंध रखती हैं। जैसे, सुमेरु पर्वत, सूर्य- चंद्र के पहियोंवाला रथ, समुद्र-मंथन, समुद्र-लंघन, सिर पर पहाड़ लादकर आकाश-मार्ग से उड़ना इत्यादि। इन्हें काव्यगत अत्युक्ति या कल्पना की उड़ान के अंतर्गत हम नहीं लेंगे। काव्य में उपर्युक्त ढंग की रूप-व्यापार-योजना प्रस्तुत (उपमेय) और अप्रस्तुत (उपमान) दोनों पक्षों में पाई जाती है। कुछ कवियों का झुकाव दोनों पक्षों में अलौकिक या अतिरंजित की ओर रहता है और कुछ का केवल अप्रस्तुत पक्ष में; जैसे-मखतूल के झूल झुलावत केशव भानु मनो शनि अंक लिए। भाव-व्यंजना के क्षेत्र में काव्य का अतिरंजित या प्रगीत स्वरूप अधिकतर मुक्तक पद्यों में विशेषतः श्रृंगार या प्रेम-संबंधी-पाया जाता है। कहीं विरह-ताप से सुलगते हुए शरीर से उठे धूएँ के कारण ही आकाश नीला दिखाई पड़ता है, कौवे काले हो जाते हैं। कहीं रक्त के आँसुओं की बूंदें टेसू के फूलों, नई कोपलों और गुजा के दानों के रूप में बिखरी दिखाई पड़ती हैं। कहीं जगत् को डुबानेवाले अश्रु-प्रवाह के खारेपन से समुद्र खारे हो जाते हैं। कहीं भस्मीभूत शरीर की राख का एक एक कण हवा के साथ