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गोस्वामी तुलसीदास


विकृत रूप मात्र है——ऐसा विकृत रूप जो प्रायः कुतूहल मात्र उत्पन्न करके रह जाता है, हृदय के मर्मस्थल को स्पर्श नहीं करता, कोई सच्ची और गभीर अनुभूति नहीं जगाता।

तुलसी की गंभीर वाणी शब्दों की कलाबाजी, उक्तियों की झूठी तड़क-भड़क आदि खेलवाड़ों में भी नहीं उलझी है। वह श्रोताओं या पाठकों को ऐसी भूमियों पर ले जाकर खड़ा करने में ही अग्रसर रही है जहाँ से जीते-जागते जगत् की रूपात्मक और क्रियात्मक सत्ता के बीच भगवान् की भावमयी मूर्ति की झाँकी मिल सकती है। गोस्वामीजी का उद्देश्य लोक के बीच प्रतिष्ठित रामत्व में लीन करना है; कुतूहल या मनोरंजन की सामग्री एकत्र करना नहीं। श्लेष, यमक, परिसंख्या इत्यादि कोरे चमत्कार-विधायक अलंकार रखने के लिये ही उन्होंने कहीं रचना नहीं की है। इन अलंकारों का प्रयोग ही उन्होंने दो ही चार जगह किया है। वे चमत्कारवादी नहीं थे। 'दोहावली' में कुछ दोहों की दुरूहता का कारण उनकी चमत्कार-प्रियता नहीं, समास-पद्धति का अवलंबन है, जिसमें अर्थ का कुछ आक्षेप ऊपर से करना पड़ता है; जैसे, यह दोहा लीजिए——

उत्तम मध्यम नीच गति, पाहन सिकता पानि।
प्रोति-परिच्छा तिहुँन की, बैर बितिक्रम जानि॥

जो इस संस्कृत श्लोक का अनुवाद है——

उत्कृष्ट-मध्यम-निकृष्ट-जनेषु मैत्री
यद्वच्छिलासु सिकतासु जलेषु रेखा।
वैरं निकृष्टमभिमध्यम उत्तमे च
यद्वच्छिलासु सिकतासु जलेषु रेखा॥

श्लोक के भाव को थोड़े में व्यक्त करने के लिये "उत्तम, मध्यम, निकृष्टा को फिर उलटे क्रम से न रखकर 'बितिक्रम' शब्द से