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पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/८१

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७७ तुलसी की काव्य-पद्धति उड़ता हुआ प्रिय के चरणों में लिपटना चाहता है। इसी प्रकार कहीं प्रिय का श्वास मलयानिल होकर लगता है; कहीं उसके अंग का स्पर्श कपूर के कर्दम या कमल-दलों की खाड़ी में ढकेल देता है। यहाँ पर यह कह देना आवश्यक है कि गोस्वामीजी की रुचि काव्य के अतिरंजित या प्रगीत स्वरूप की ओर नहीं थी। गीतावली गीत-काव्य है पर उसमें भी भावों की व्यंजना उसी रूप में हुई है जिस रूप में मनुष्यों को उनकी अनुभूति हुआ करती है या हो सकती है। यह बात आगे के प्रसंगों में उद्धृत उदाहरणों से स्पष्ट हो जायगी। केवल दो-एक जगह उन्होंने कवियों की अति- रंजित या प्रलपित उक्तियों का अनुकरण किया है; जैसे, सीताजी के विरह-ताप के इस वर्णन में जो हनुमान् राम से कहते हैं- जेहि बाटिका बसति तह खग मृग तजि तजि भजे पुरातन भौन स्वास-समीर भेट भइ भोरेहु तेहि मग पग न धरयो तिहुँ पौन ।। पर ये दोनों पंक्तियाँ ऐसी हैं कि यदि तुलसी के सामान्य पाठकों को सुनाई जायँ तो वे इन्हें तुलसी की न समझेगे। तात्पर्य यह कि गोस्वामीजी की दृष्टि वास्तविक जीवन-दशाओं के मार्मिक पक्षों के उद्घाटन की ओर थी, काल्पनिक वैचित्र्य-विधान की ओर नहीं। ऊपर जो बात कही गई उसका अर्थ 'कलावादी' लोगों के निकट यह होगा कि तुलसीदास "नूतन सृष्टि-निर्माण" वाले कवि नहीं थे। ऐसे लोगों के गुरुओं का कहना है कि ज्ञात जगत् परिमित है और मन ( या अंत:करण-विशिष्ट आत्मा ) का विस्तार असीम और अपरिमित है; अत: पूरी कविता वही है जो वास्तविक जगत् या जीवन में बद्ध न रहकर, वस्तु और अनुभूति दोनों के लोकातीत स्वरूप दिखाया करे । कल्पना के इन 'विश्वामित्रां' से योरप भी कुछ दिन परेशान रहा। 'कलावादी' जिसे 'नूतन सृष्टि' कहते हैं वह स्वच्छ और स्थिर दृष्टिवालों के निकट वास्तविक का