पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/८७

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स्वरूप में तुलसी की काव्य-पद्धति ८३ प्रेम का स्फुरण केवल लोक-कर्त्तव्यों के बीच में ही दिखाया है, उनसे अलग नहीं। उनकी रामायण में सीता-राम के प्रेम का परि- चय हम विवाह के उपरांत ही पाते हैं। पर गोस्वामीजी के बहुत पहले से काव्यों में विवाह के पूर्व नायक-नायिका में प्रेम का प्रादु. र्भाव दिखाने की प्रथा प्रतिष्ठित चली आती थी। इससे उन्होंने भी प्रेमाख्यानी रंग ( Romantic turn ) देने के लिये जयदेव के प्रसन्नराघव नाटक का अनुसरण करके धनुष-यज्ञ के प्रसंग में 'फुलवारी' के दृश्य का सन्निवेश किया। उन्होंने जनक की वाटिका में राम और सीता का साक्षात्कार कराके दोनों के हृदय में प्रेम का उदय दिखाया। पर इस प्रेम-प्रसंग में भी राम-कथा के पुनीत कुछ भी अंतर न आने पाया; लोक-मर्यादा का लेश-मात्र भी अतिक्रमण न हुआ। राम-सीता एक दूसरे का अलौकिक सौंदर्य देखकर मुग्ध होते हैं। सीता मन ही मन राम को अपना वर बनाने की लालसा करती हैं, उनके ध्यान में मग्न होती हैं, पर "पितु-पन सुमिरि बहुरि मन छोभा" । वे इस बात का कहीं आभास नहीं देतीं कि 'पिता चाहे लाख करें, मैं राम को छोड़ और किसी के साथ विवाह न करूँगो'। इसी प्रकार राम भी यह कहीं व्यंजित नहीं करते कि धनुष चाहे जो तोड़े, मेरे देखते सीता के साथ कोई विवाह नहीं कर सकता। वाल्मीकि ने विवाह हो जाने के उपरांत मार्ग में परशुराम का मिलना लिखा है। पर गोस्वामीजी ने उनका झमेला विवाह के पूर्व धनुर्भग होते ही रखा है। इसे भी रसात्मकता की मात्रा बढ़ाने की काव्य-युक्ति ही समझना चाहिए। वीरगाथा-काल के पहले से ही वीर-काव्यों की यह परिपाटी चली आती थी कि नायिका को प्राप्त करने के पहले नायक के मार्ग में अनेक प्रकार की विघ्न-बाधाएं खड़ी होती थीं जिन्हें नायक अपना अद्भुत पराक्रम ,