सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

८२ गोस्वामी तुलसीदास भीतर समझे या बाहर ? भीतर समझने के लिये यही एक शास्त्रीय युक्ति है कि जैसे समूचे प्रबंध के रस से बीच बीच में आए हुए "आगे चले बहुरि रघुराई" ऐसे नीरस पद्य भी रसवान् हो जाते हैं, वैसे ही इस प्रकार के कोरे उपदेश भी। अब रहा यह कि गोस्वामीजी ने 'रामचरित-मानस' की रचना में वाल्मीकि से भिन्न पथ का जो बहुत जगह अवलंबन किया है, वह किस विचार से। पहली बात तो यह है कि वाल्मोकि ने राम के नरत्व और नारायणत्व, इन दो पक्षों में से नरत्व की पूर्णता प्रदर्शित करने के लिये उनके चरित का गान किया है। पर गोस्वामीजी ने राम का नारायणत्व लिया है और अपने 'मानस' को भगवद्भक्ति के प्रचार का साधन बनाया है। इससे कहीं कहीं उन्होंने उनके नरत्व-सूचक लक्षणों को दृष्टि के सामने से हटा दिया है। जैसे, वनवास का दुःसंवाद सुनाने जब राम कौशल्या के पास जाने लगे हैं तब वाल्मीकि ने उनके दीर्घ निःश्वास और कंपित स्वर का उल्लेख किया है; सीता को अयोध्या में रहने के लिये समझाते समय उन्होंने कहा है कि भरत के सामने मेरी प्रशंसा न करना; इसी प्रकार मृग को मारकर लौटते समय आश्रम पर सीता के न रहने की आशंका उन्हें होने लगी है तब उनके मुँह से निकल पड़ा है कि 'कैकेयी अब सुखी होगी। ऐसे स्थलों पर राम में का क्षोभ गोस्वामीजी ने नहीं दिखाया है। पर साथ ही काव्यत्व की उन्होंने पूरी रक्षा की है; अस्वाभाविकता नहीं आने दी है। अवसर के अनुसार दुःख, शोक आदि की उनके द्वारा पूरी व्यंजना अध्यात्मरामायण भक्ति-परक ग्रंथ है, इससे अनेक स्थलों पर उन्होंने उसी का अनुसरण किया है। पर बहुत कुछ परिवर्तन गोस्वामीजी ने अपने समय की लोक- रुचि भौर साहित्य की रूढ़ि के अनुसार किया है। वाल्मीकि ने इस प्रकार कराई है। ,