पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८५
तुलसी की काव्य-पद्धति


काव्य सदा बाह्यार्थ-निरूपक होता है। शेष ग्रंथों में से 'गीताव्ली यद्यपि गीत-काव्य है फिर भी वह आदि से अंत तक कथा ही को लेकर चली है। उसमें या तो वस्तु-व्यापार-वर्णन है अथवा पात्रों के मुँह से भाव-व्यंजना। अत: वह भी बाह्यार्थ-निरूपक ही कही जायगी। कवितावली में भी कथा-प्रसंगों को लेकर ही फुटकल पद्यों की रचना की गई है। हाँ, उसके उत्तर-कांड में कवि राम की दयालुता, भक्त-वत्सलता आदि के साथ साथ अपनी दीनता, निरवलंबता, कातरता इत्यादि का भी वर्णन करता है। 'विनय पत्रिका' में अलबत तुलसीदासजी अपनी दशा का निवेदन करने बैठे हैं उस ग्रंथ में वे जगह जगह अपनी प्रतीति, अपनी भावना और अपनी अनुभूति को स्पष्ट 'अपनी' कहकर प्रकट करते हैं; जैसे—

(क) संकर साखि जो राखि कहीं कछु ती जरि जीह गरे।
अपना भलो राम नामहि ते तुलसिहि समुझि परो॥

(ख) बहु मत सुनि, बहु पंथ पुराननि जहां-तहाँ झगरी सो।
गुरु कह्यो राम-भजन नीको मोहि लगत राज-डगरो से॥

(ग) को जाने को जैहै जमपुर, को सुरपुर, परधाम को।
तुलसिहि बहुत भलो लागत जग-जीवन राम-गुलाम को।।

(घ) नाहिन नरक परत मोकहँ डर, जद्यपि है अति हारो।
यह बडि त्रास दास तुलसी प्रभु-नामहु पाप न जारो ॥

पर इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि तुलसी की अनुभूति ऐसी नहीं जो एकदम सबसे न्यारी हो। 'विनय' में कलि की करालता से उत्पन्न जिस व्याकुलता या कातरता का उन्होंने वर्णन किया है वह केवल उन्हों की नहीं है, समस्त लोक की है। इसी प्रकार जिस दीनता, निरवलंबता, दोषपूर्णता या पापमग्नता की भावना की उन्होंने व्यंजना की है वह भी भक्त मात्र के हृदय की