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गोस्वामी तुलसीदास


सामान्य वृत्ति है। वह और सब भक्तों की अनुभूति से अवछिन्न नहीं; उसमें कोई व्यक्तिगत वैल क्षण्य नहीं।

यहाँ पर यह सूचित कर देना आवश्यक है कि 'स्वानुभूति-निरू- पक' और 'बाह्यार्थ-निरूपक' यह भेद स्थूल दृष्टि से ही किया हुआ है। कवि अपने से बाहर की जिन वस्तुओं का वर्णन करता है उन्हें भी वह जिस रूप में आप अनुभव करता है, उसी रूप में रखता है। अत: वे भी उसकी स्वानुभूति ही हुई। दूसरी ओर जिसे वह स्वानुभूति कहकर प्रकट करता है वह यदि संसार में किसी की अनुभूति से मेल नहीं खायगी तो एक कौतुक मात्र होगी; काव्य नहीं। ऐसा काव्य और उसका कवि दोनों तमाशा देखने की चीज ठहरेंगे*। जिस अनुभूति की व्यंजना को श्रोता या पाठक का हृदय भी अपनाकर अनुरंजित होगा वह केवल कवि की ही नहीं रह जायगी, श्रोता या पाठक की भी हो जायगी। अपने हृदय को और लोगों के हृदयों से सर्वथा विलक्षण प्रकट करनेवाला एक संप्रदाय


  • योरप में जो कलावादी संप्रदाय (Esthetic School) चला था वह इन दो बातों में से पहली बात को ही लेकर दौड़ पड़ा था; दूसरी बात की ओर उसने ध्यान ही नहीं दिया था, जैसा कि पेटर (Pater) के इस कथन से स्पष्ट है—

Just in proportion as the writer's aim, consciously or unconsciously, comes to be the transcribing, not of the world, not of mere fact, but of his sense of it, he becomes an artist, his work fine art ; and good art in proportion to the truth of his presentment of that sense; as in those humbler or plainer functions of literature also, truth—truth to bare fact there-is the essence of such artistic quality as they may have.