पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

८६ तुलसी की भावुकता राम-जपन-सिय-रूप निहारी । पाइ नयन-फल होहि सुखारी ॥ सजल बिलोचन पुलक सरीरा । सब भए मगन देखि दोउ बीरा ॥ रामहि देखि एक अनुरागे । चितवत चले जाहि सँग लागे । एक देखि बट-छाँह भलि, डासि मृदुल तृन पात । कहहिं "गँवाइय छिनुक स्रम, गवनब अबहि कि प्रात ॥" राम-जानकी के अयोध्या से निकलने का दृश्य वर्णन करने में गोस्वामीजी ने कुछ उठा नहीं रखा। सुशीलता के आगार रामचंद्र प्रसन्नमुख निकलकर दास-दासियों को गुरु के सपुर्द कर रहे हैं; सबसे वही करने की प्रार्थना करते हैं जिससे राजा का दुःख कम हो। उनकी सर्वभूतव्यापिनी सुशीलता ऐसी है कि उनके वियोग में पशु-पक्षी भी विकल हैं। भरतजी जब लौटकर अयोध्या आए, तब उन्हें सर-सरिताएं भी श्रीहीन दिखाई पड़ी, नगर भी भयानक लगा। भरत को यदि राम-गमन का संवाद मिल गया होता तो हम इसे भरत के हृदय की छाया कहते । पर घर में जाने के पहले उन्हें कुछ भी वृत्त ज्ञात नहीं था। इससे हम सर-सरिता के श्रीहीन होने का अर्थ उनकी निर्जनता, उनका सन्नाटापन लेंगे। लोग राम-वियोग में विकल पड़े हैं। सर-सरिता में जाकर स्नान करने का उत्साह उन्हें कहाँ ? पर यह अर्थ हमारे आपके लिये है। गोस्वामीजी ऐसे भावुक महात्मा के निकट तो राम के वियोग में अयोध्या की भूमि ही विषाद-मग्न हो रही है; आठ आठ आँसू रो रही है। चित्रकूट में राम और भरत का जो मिलन हुआ है, वह शील और शोल का, स्नेह और स्नेह का, नीति और नीति का मिलन है। इस मिलन से संघटित उत्कर्ष की दिव्य प्रभा देखने योग्य है। यह झाँकी अपूर्व है ! 'भायप भगति' से भरे भरत नंगे पाँव राम को मनाने जा रहे हैं। मार्ग में जहाँ सुनते हैं कि यहाँ पर राम-लक्ष्मण ने विश्राम किया था, उस स्थल को देख आँखों में आँसू भर लेते हैं।