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पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/९६

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तुलसीदास की भावुकता


पुत्रि! पवित्र किए कुल दोऊ। सुजस धवल जग कह सक कोऊ॥ वह धर्म-भाव पर मुग्ध होकर ही।

(६) भरत और राम दोनों जनक को पिता के स्थान पर कहकर सब भार उन्हीं पर छोड़ते हैं।

(७) सीताजी अपने पिता के डेरे पर जाकर माता के पास बैठी है। इतने में रात हो जाती है और वे असमंजस में पड़ती हैं—

कहत न लीय सकुचि मन माहीं। इहाँ बसब रजनी भन नाहीं॥ पति तपस्वी के वेश में भूशय्या पर रात काटें और पत्नी उनसे अलग राजसी ठाट-बाट के बीच रहे, यही असमंजस की बात है।

(८) जब से कौशल्या आदि आई हैं, तब से सीता बराबर उनकी सेवा में लगी रहती है।

(९) ब्राह्मण-वर्ग के प्रति राज-वर्ग के आदर और सम्मान का जैसा मनोहर स्वरूप दिखाई पड़ता है, वैसी ही ब्राह्मण-वर्ग में राज्य और लोक के हित-साधन की तत्परता झलक रही है।

(१०) केवट के दूर से ऋषि को प्रणाम करने और ऋषि के उसे आलिंगन करने में उभय पक्ष का व्यवहार-सौष्ठव प्रकाशित हो रहा है।

(११) वन्य कोल-किरातों के प्रति सबका कैसा मृदुल और सुशील व्यवहार है।

कवि की पूर्ण भावुकता इसमें है कि वह प्रत्येक मानव-स्थिति में अपने को डालकर उसके अनुरूप भाव का अनुभव करे। इस शक्ति की परीक्षा का रामचरित से बढ़कर विस्तृत क्षेत्र और कहाँ मिल सकता है! जीवन-स्थिति के इतने भेद और कहाँ दिखाई पड़ते हैं! इस क्षेत्र में जो कवि सर्वत्र पूरा उतरता दिखाई पड़ता है, उसकी भाकवुता को और कोई नहीं पहुँच सकता। जो केवल दांपत्य रति ही में अपनी भावुकता प्रकट कर सकें या वीरोत्साह ही का अच्छा चित्रण कर सकें, वे पूर्ण भावुक नहीं कहे जा सकते। पूर्ण भावुक वे