६४ गोस्वामी तुलसीदास ही हैं जो जीवन की प्रत्येक स्थिति के मर्मस्पर्शी अंश का साक्षात्कार कर सकें और उसे श्रोता या पाठक के सम्मुख अपनी शब्दशक्ति द्वारा प्रत्यक्ष कर सकें। हिंदी के कवियों में इस प्रकार की सींगपूर्ण भावुकता हमारे गोस्वामीजी में ही है जिसके प्रभाव से रामचरित- मानस उत्तरीय भारत की सारी जनता के गले का हार हो रहा है। वात्सल्य भाव का अनुभव करके पाठक तुरंत बालक राम-लक्ष्मण के प्रवास का उत्साहपूर्ण जीवन देखते हैं जिसके भीतर आत्मावलं- वन का विकास होता है। फिर प्राचार्य-विषयक रति का स्वरूप देखते हुए वे जनकपुर में जाकर सीता-राम के परम पवित्र दांपत्य भाव के दर्शन करते हैं। इसके उपरांत अयोध्या-त्याग के करुण दृश्य के भीतर भाग्य की अस्थिरता का कटु म्वरूप सामने आता है। तदनंतर पथिक-वेशधारी राम-जानकी के साथ साथ चलकर पाठक ग्रामीण स्त्री-पुरुषों के उस विशुद्ध सात्त्विक प्रेम का अनुभव करते हैं जिसे हम दांपत्य, वात्सल्य आदि कोई विशेषण नहीं दे सकते, पर जो मनुष्यमात्र में स्वाभाविक है रमणीय वन-पर्वत के बीच एक सुकुमारी राजवधू को साथ लिए दो वीर आत्मावलंबी राजकुमारों को विपत्ति के दिनों को सुख के दिनों में परिवर्तित करते पाकर वे "वीरभोग्या वसुंधरा" की सत्यता हृदयंगम करते हैं। सीता-हरण पर विप्रलंभ-शृंगार का माधुर्य देखकर पाठक फिर लंका-दहन के अद्भुत, भयानक और वीभत्स दृश्य का निरीक्षण करने हुए राम-रावण-युद्ध के रौद्र और युद्धवीर तक पहुंचते हैं। शांतरस का पुट तो बीच बीच में बराबर मिलता ही है। हास्यरस का पूर्ण समावेश रामचरितमानस के भीतर न करके नारद-माह के प्रसंग में उन्होंने किया है। इस प्रकार काव्य के गूढ़ और उच्च उद्देश्य को समझनेवाले, मानव-जीवन के सुख और दुःख दोनों पक्षों के नाना रूपों के मर्मस्पर्शी चित्रण को देखकर,
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