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गो-दान १०३

हिरन ऐसा क्या बहुत भारी होगा। आखिर मिर्ज़ा इतनी दूर ले ही आये। बहुत ज्यादा थके तो नहीं जान पड़ते; अगर इनकार करते हैं तो सुनहरा अवसर हाथ से जाता है। आखिर ऐसा क्या कोई पहाड़ है। बहुत होगा, चार-पाँच पॅसेरी होगा। दो-चार दिन गर्दन ही तो दुखेगी! जेब में रुपए हों, तो थोड़ी-सी बीमारी सुख की वस्तु है।

'सौ क़दम की रही।'

'हाँ, सौ क़दम। मैं गिनता चलूँगा।'

'देखिए, निकल न जाइएगा।'

'निकल जानेवाले पर लानत भेजता हूँ।'

तंखा ने जूते का फीता फिर से बाँधा, कोट उतारकर लकड़हारे को दिया, पतलून ऊपर चढ़ाया, रूमाल से मुंह पोंछा और इस तरह हिरन को देखा, मानो ओखली में सिर देने जा रहे हों। फिर हिरन को उठाकर गर्दन पर रखने की चेष्ठा की। दो-तीन बार ज़ोर लगाने पर लाश गर्दन पर तो आ गयी; पर गर्दन न उठ सकी। कमर झुक गयी, हाँफ उठे और लाश को ज़मीन पर पटकनेवाले थे कि मिर्ज़ा ने उन्हें सहारा देकर आगे बढ़ाया।

तंखा ने एक डग इस तरह उठाया जैसे दलदल में पाँव रख रहे हों। मिर्ज़ा ने बढ़ावा दया––शाबाश! मेरे शेर, वाह-वाह!

तंखा ने एक डग और रखा। मालूम हुआ,गर्दन टूटी जाती है।

'मार लिया मैदान! नजीते रहो पठ्ठे!'

तंखा दो डग और बढ़े। आँखें निकली पड़ती थीं।

'बस,एक बार और जोर मारो दोस्त। सौ क़दम की शर्त ग़लत। पचास क़दम की ही रही।'

वकील साहब का बुरा हाल था। वह बेजान हिरन शेर की तरह उनको दबोचे हुए,उनका हृदय-रक्त चूस रहा था। सारी शक्तियाँ जवाब दे चुकी थीं। केवल लोभ,किसी लोहे की धरन की तरह छत को सँभाले हुए था। एक से पच्चीस हजार तक की गोटी थी। मगर अन्त में वह शहतीर भी जवाब दे गयी। लोभी की कमर भी टूट गयी। आँखों के सामने अँधेरा छा गया। सिर में चक्कर आया और वह शिकार गर्दन पर लिये पथरीली ज़मीन पर गिर पड़े।

मिर्ज़ा ने तुरन्त उन्हें उठाया और अपने रूमाल से हवा करते हुए उनकी पीठ ठोंकी।

'ज़ोर तो यार तुमने खूब मारा; लेकिन तक़दीर के खोटे हो।'

तंखा ने हांफते हुए लम्बी साँस खींचकर कहा––आपने तो आज मेरी जान ही ले ली थी। दो मन से कम न होगा ससुर।

मिर्ज़ा ने हँसते हुए कहा––लेकिन भाईजान मैं भी तो इतनी दूर उठाकर लाया ही था।

वकील साहब ने खुशामद करनी शुरू की––मुझे तो आपकी फ़रमाइश पूरी करनी