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१०२ गोदान

लकड़हारे ने मानो क्षमा माँगी––सरकार आप लोग बड़े आदमी हैं। बोझ उठाना तो हम-जैसे मजूरों ही का काम है।

'मैं तुम्हारा दुगुना जो हूँ।'

'इससे क्या होता है मालिक!'

मिर्जा़जी का पुरुषत्व अपना और अपमान न सह सका। उन्होंने बढ़कर हिरन को गर्दन पर उठा लिया और चले; मगर मुश्किल से पचास क़दम चले होंगे कि गर्दन फटने लगी; पाँव थरथराने लगे और आँखों में तितिलियाँ उड़ने लगीं। कलेजा मज़बूत किया और एक बीस कदम और चले। कम्बख्त कहाँ रह गया? जैसे इस लाश में सीसा भर दिया गया हो। ज़रा मिस्टर तंखा की गर्दन पर रख दूँ, तो मज़ा आये। मशक की तरह जो फ्ले चलते हैं, ज़रा उसका मज़ा भी देखें; लेकिन बोझा उतारें कैसे? दोनों अपने दिल में कहेंगे, बड़ी जवाँमर्दी दिखाने चले थे। पचास क़दम में चीं बोल गये।

लकड़हारे ने चुटकी ली––कहो मालिक, कैसे रंग-ढंग हैं। बहुत हलका है न?

मिर्जा़जी को बोझ कुछ हलका मालूम होने लगा। बोले––उतनी दूर तो ले ही जाऊँगा, जितनी दूर तुम लाये हो।

'कई दिन गर्दन दुखेगी मालिक!'

'तुम क्या समझते हो, मैं यों ही फूला हुआ हूँ!'

'नहीं मालिक, अब तो ऐसा नहीं समझता। मुदा आप हैरान न हों; वह चट्टान है, उस पर उतार दीजिए।'

'मैं अभी इसे इतनी ही दूर और ले जा सकता हूँ।'

'मगर यह अच्छा तो नहीं लगता कि मैं ठाला चलूँ और आप लदे रहें।'

मिर्ज़ा साहब ने चट्टान पर हिरन को उतारकर रख दिया। वकील साहब भी आ पहुंँचे।

मिर्ज़ा ने दाना फेंका––अब आप को भी कुछ दूर ले चलना पड़ेगा जनाब!

वकील साहब की नज़रों में अब मिर्जा़जी का कोई महत्व न था। बोले––मुआफ़ कीजिए। मुझे अपनी पहलवानी का दावा नहीं है।

'बहुत भारी नहीं है, सच।'

'अजी रहने भी दीजिए।'

'आप अगर इसे सौ क़दम ले चलें, तो मैं वादा करता हूँ आप मेरे सामने जो तजवीज़ रखेंगे, उसे मंजूर कर लूंँगा।'

'मैं इन चकमों में नहीं आता।'

'मैं चकमा नहीं दे रहा हूँ, वल्लाह। आप जिस हलके से कहेंगे खड़ा हो जाऊँगा। जब हुक्म देंगे, बैठ जाऊँगा। जिस कम्पनी का डाइरेक्टर, मेम्बर, मुनीम, कनवेसर, जो कुछ कहिएगा, बन जाऊँगा। बस सौ क़दम ले चलिए। मेरी तो ऐसे ही दोस्तों से निभती है, जो मौक़ा पड़ने पर सब कुछ कर सकते हों।'

तंखा का मन चुलबुला उठा। मिर्ज़ा अपने क़ौल के पक्के हैं, इसमें कोई सन्देह न था।