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गो-दान
 


के अनाज के सिवा और कोई चीज़ हो। मैं बिरादरी से दगा न करूँगा। पंचों को मेरे बाल-बच्चों पर दया आये,तो उनकी कुछ परवरिस करें,नहीं मुझे तो उनकी आज्ञा पालनी है।

धनिया झल्लाकर वहां से चली गयी और होरी पहर रात तक खलिहान से अनाज ढो-ढोकर झिंगुरीसिंह की चौपाल में ढेर करता रहा। बीस मन जौ था,पाँच मन गेहूँ और इतना ही मटर,थोड़ा-सा चना और तेलहन भी था। अकेला आदमी और दो गृहस्थियों का बोझ। यह जो कुछ हुआ,धनिया के पुरुषार्थ से हुआ। झुनिया भीतर का सारा काम कर लेती थी और धनिया अपनी लड़कियों के साथ खेती में जुट गयी थी। दोनों ने सोचा था,गेहूं और तेलहन से लगान की एक किस्त अदा हो जायगी और हो सके तो थोड़ा-थोड़ा सूद भी दे देगे। जौ खाने के काम में आयेगा। लंगे-तंगे पाँच-छ:महीने कट जायंगे तब तक जुआर, मक्का,सांवा,धान के दिन आ जायेंगे। वह सारी आशा मिट्टी में मिल गयी। अनाज तो हाथ मे गये ही,सौ रुपये की गठरी और सिर पर लद गयी। अव भोजन का कही ठिकाना नहीं। और गोवर का क्या हाल हुआ,भगवान जाने। न हाल न हवाल। अगर दिल इतना कच्चा था,तो ऐसा काम ही क्यों किया;मगर होनहार को कौन टाल मकला है। विरादरी का वह आतंक था कि अपने सिर पर लादकर अनाज ढो रहा था,मानो अपने हाथों अपनी कब्र खोद रहा हो। ज़मींदार, साहूकार,सरकार किसका इतना रोव था? कल वाल-वच्चे क्या खायेंगे,इसकी चिन्ता प्राणों को सोखे लेती थी;पर विरादरी का भय पिशाच की भाँति सिर पर सवार आँकुस दिये जा रहा था। बिरादरी से पृथक् जीवन की वह कोई कल्पना ही न कर सकता था। शादी-ब्याह,मूंड़न छेदन, जन्म-मरण सब कुछ विरादरी के हाथ में है। बिरादरी उसके जीवन में वृक्ष की भांति जड़ जमाये हुए थी और उसकी नसें उसके रोम-रोम में विधी हुई थीं। बिरादरी से निकलकर उसका जीवन विशृंखल हो जायगा--तार-तार हो जायगा।

जव खलिहान में केवल डेढ़-दो मन जौ और रह गया, तो धनिया ने दौड़कर उसका हाथ पकड़ लिया और बोली--अच्छा,अब रहने दो। ढो तो चुके बिरादरी की लाज। बच्चों के लिए भी कुछ छोड़ोगे कि सब बिरादरी के भाड़ में झोंक दोगे। मैं तुमसे हार जाती हूँ। मेरे भाग्य मे तुम्हीं-जैसे वुद्ध का संग लिखा था!

होरी ने अपना हाथ छुड़ाकर टोकरी में शेप अनाज भरते हुए कहा-यह न होगा धनिया,पंचों की आँख वचाकर एक दाना भी रख लेना मेरे लिए हराम है। मैं ले जाकर मव-का-सव वहाँ ढेर कर देता हूँ। फिर पंचों के मन में दया उपजेगी,तो कुछ मेरे बालबच्चों के लिए देंगे। नहीं भगवान् मालिक है।

धनिया तिलमिलाकर बोली--यह पंच नहीं हैं,राछस हैं, पक्के राछस!यह सब हमारी जगह-जमीन छीनकर माल मारना चाहते हैं। डाँड़ तो बहाना है। समझाती जाती हूँ;पर तुम्हारी आँखें नहीं खुलतीं। तुम इन पिशाचों से दया की आसा रखते हो। सोचते हो,दस-पाँच मन निकालकर तुम्हें दे देंगे। मुंह धो रखो।

जब होरी ने न माना और टोकरी सिर पर रखने लगा तो धनिया ने दोनों हाथों