पृष्ठ:गो-दान.djvu/१४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१४४
गो-दान
 

पर इस तरह की कोई-न-कोई सनक हमेशा सबार रहती थी। अमीरों से पैसा लेकर गरीबों को बाँट देना। इस बूढ़ी कबड्डी का विज्ञापन कई दिन से हो रहा था। बड़े-बड़े पोस्टर चिपकाये गये थे, नोटिस बाँटे गये थे। यह खेल अपने ढंग का निराला होगा, बिलकुल अभूतपूर्व। भारत के बूढ़े आज भी कैसे पोढ़े हैं, जिन्हें यह देखना हो, आयें और अपनी आँख तृप्त कर लें। जिसने यह तमाशा न देखा, वह पछतायेगा। ऐसा सुअवसर फिर न मिलेगा। टिकट दस रुपए से लेकर दो आने तक के थे। तीन बजते-बजते सारा अहाता भर गया। मोटरों और फिटनों का तांता लगा हुआ था। दो हजार से कम की भीड़ न थी। रईसों के लिए कुर्सियों और बेंचों का इन्तज़ाम था। साधारण जनता के लिए साफ़ सुथरी ज़मीन।

मिस मालती, मेहता, खन्ना, तंखा और राय साहब सभी विराजमान थे।

खेल शुरू हुआ तो मिर्जा़ ने मेहता से कहा––आइए डाक्टर साहब, एक गोई हमारी और आपकी भी हो जाय।

मिस मालती बोली––फ़िलासफ़र का जोड़ फ़िलासफ़र ही से हो सकता है।

मिर्ज़ा ने मूंछों पर ताव देकर कहा––तो क्या आप समझती हैं, मैं फिलासफ़र नहीं हूँ। मेरे पास पुछल्ला नहीं है। लेकिन हूँ मैं फ़िलासफ़र। आप मेरा इम्तहान ले सकते हैं मेहताजी!

मालती ने पूछा––अच्छा बतलाइए, आप आइडियलिस्ट हैं या मेटीरियलिस्ट।

'मैं दोनों हूँ।'

'यह क्योंकर?'

'बहुत अच्छी तरह। जब जैसा मौका देखा, वैसा बन गया।'

'तो आपका अपना कोई निश्चय नहीं है।'

'जिस बात का आज तक कभी निश्चय न हुआ, और कभी न होगा, उसका निश्चय मैं भला क्या कर सकता हूँ; और लोग आँखें फोड़कर और किताबें चाटकर जिस नतीजे पर पहुँचते हैं, वहाँ मैं यों ही पहुंँच गया। आप बता सकती हैं, किसी फिलासफ़र ने अक्लीगद्दे लड़ाने के सिवाय और कुछ किया है?'

डाक्टर मेहता ने अचकन के बटन खोलते हुए कहा––तो चलिए हमारी और आपकी हो ही जाय। और कोई माने या न माने, मैं आपको फि़लासफ़र मानता हूँ।

मिर्ज़ा ने खन्ना से पूछा––आपके लिए भी कोई जोड़ ठीक करूँ?

मालती ने पुचारा दिया––हाँ, हाँ, इन्हें ज़रूर ले जाइए मिस्टर तंखा के साथ।

खन्ना झेंपते हुए बोले––जी नहीं, मुझे क्षमा कीजिए।

मिर्ज़ा ने रायसाहब से पूछा––आपके लिए कोई जोड़ लाऊँ?

राय साहब बोले––मेरा जोड़ तो ओंकारनाथ का है, मगर वह आज नज़र ही नहीं आते। मिर्ज़ा और मेहता भी नंगी देह, केवल जाँधिए पहने हुए मैदान में पहुँच गये। एक इधर, दूसरा उधर। खेल शुरू हो गया।

जनता बूढ़े कुलेलों पर हँसती थी, तालियां बजाती थी, गालियाँ देती थी, ललकारती