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गो-दान १४७

अपवाद समझिए। मैं अपनी ही बात कहती हूँ। कोई गरीब औरत दवाखाने में आ जाती है, तो घण्टों उससे बोलती तक नहीं। पर कोई महिला कार पर आ गयी, तो द्वार तक जाकर उसका स्वागत करती हूँ और उसकी ऐसी उपासना करती हूँ, मानो साक्षात् देवी है। मेरा और रानी साहब का कोई मुकाबला नहीं। जिस तरह के कौंसिल बन रहे हैं, उनके लिए रानी साहब ही ज्यादा उपयुक्त हैं।

उधर मैदान में मेहता की टीम कमज़ोर पड़ती जाती थी। आधे से ज्यादा खिलाड़ी मर चुके थे। मेहता ने अपने जीवन में कभी कबड्डी न खेली थी। मिर्जा़ इस फन के उस्ताद थे। मेहता की तातीलें अभिनय के अभ्यास में कटती थीं। रूप भरने में वह अच्छे-अच्छों को चकित कर देते थे। और मिर्ज़ा के लिए सारी दिलचस्पी अखाड़े में थी, पहलवानों के भी और परियों के भी।

मालती का ध्यान उधर भी लगा हुआ था। उठकर राय साहब से बोली––मेहता की पार्टी तो बुरी तरह पिट रही है।

राय साहब और खन्ना में इंश्योरेंस की बातें हो रही थीं। राय साहब उस प्रसंग से ऊबे हुए मालूम होते थे। मालती ने मानो उन्हें एक बन्धन से मुक्त कर दिया। उठकर बोले––जी हाँ, पिट तो रही है। मिर्जा़ पक्का खिलाड़ी है।

'मेहता को यह क्या सनक सूझी। व्यर्थ अपनी भद्द करा रहे हैं।'

'इसमें काहे की भद्द? दिल्लगी ही तो है।'

'मेहता की तरफ़ से जो बाहर निकलता है, वही मर जाता है।'

एक क्षण के बाद उसने पूछा––क्या इस खेल में हाफ़ टाइम नहीं होता?

खन्ना को शरारत सूझी। बोले––आप चले थे मिर्ज़ा से मुकाबला करने। समझते थे, यह भी फ़िलॉसफ़ी है।

'मैं पूछती हूँ, इस खेल में हाफ़ टाइम नहीं होता?'

खन्ना ने फिर चिढ़ाया––अब खेल ही खतम हुआ जाता है। मज़ा आयेगा तब, जब मिर्ज़ा मेहता को दबोचकर रगड़ेंगे और मेहता साहब 'ची' बोलेंगे।

'मैं तुमसे नहीं पूछती। राय साहब से पूछती हूँ।'

राय साहब बोले––इस खेल में हाफ़ टाइम! एक ही एक आदमी तो सामने आता है।

'अच्छा, मेहता का एक आदमी और मर गया।'

खन्ना बोले––आप देखती रहिए! इसी तरह सब मर जायेंगे और आखिर में मेहता साहब भी मरेंगे।

मालती जल गयी––आपकी हिम्मत न पड़ी बाहर निकलने की।

'मैं गँवारों के खेल नहीं खेलता। मेरे लिए टेनिस है।'

'टेनिस में भी मैं तुम्हें सैकड़ों गेम दे चुकी हूँ।'

'आपसे जीतने का दावा ही कब है?'

'अगर दावा हो, तो मैं तैयार हूँ।'