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पृष्ठ:गो-दान.djvu/१४७

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गो-दान
 

'मैं खरीदार की तलाश में रहूँगा; मगर मेरा कमीशन पाँच प्रतिशत होगा, आपसे।'

'औरों से शायद दस प्रतिशत हो क्यों; क्या करोगे इतने रुपए लेकर?'

'आप जो चाहें दे दीजिएगा। अब तो राजी हुए। शुगर के हिस्से अभी तक आपने न खरीदे। अब बहुत थोड़े-से हिस्से बच रहे हैं। हाथ मलते रह जाइएगा। इंश्योरेंस की पालिसी भी आपने न ली। आप में टाल-मटोल की बुरी आदत है। जब अपने लाभ की बातों में इतना टाल-मटोल है, तब दूसरों को आप लोगों से क्या लाभ हो सकता है! इसीसे कहते हैं, रियासत आदमी की अक्ल चर जाती है। मेरा बस चले तो मैं ताल्लुकेदारी की रियासतें जब्त कर लूंँ।'

मिस्टर तंखा मालती पर जाल फेंक रहे थे। मालती ने साफ़ कह दिया था कि वह एलेक्शन के झमेले में नही पड़ना चाहती; पर तंखा इतनी आसानी से हार माननेवाले व्यक्ति न थे। आकर कुहनियों के बल मेज़ पर टिककर बोले––आप जरा उस मुआमले पर फिर विचार करें। मैं कहता हूँ ऐसा मौक़ा शायद आपको फिर न मिले। रानी साहब चन्दा को आपके मुकाबले में रुपए में एक आना भी चान्स नहीं है। मेरी इच्छा केवल यह है कि कौंसिल में ऐसे लोग जायें, जिन्होंने जीवन में कुछ अनुभव प्राप्त किया है और जनता की कुछ सेवा की है। जिस महिला ने भोग-विलास के सिवा कुछ जाना ही नहीं, जिसने जनता को हमेशा अपनी कार का पेट्रोल समझा, जिसकी सबसे मूल्यवान सेवा वे पार्टियाँ हैं, जो वह गवर्नरों और सेक्रेटरियों को दिया करती हैं, उनके लिए इस कौसिल में स्थान नहीं है। नयी कौंसिलों में बहुत कुछ अधिकार प्रतिनिधियों के हाथ में होगा और मैं नहीं चाहता कि वह अधिकार अनधिकारियों के हाथ में जाय।

मालती ने पीछा छुड़ाने के लिए कहा––लेकिन साहब, मेरे पास दस-बीस हजार एलेक्शन पर खर्च करने के लिए कहाँ हैं? रानी साहब तो दो-चार लाख खर्च कर सकती हैं। मुझे भी साल में हज़ार-पाँच सौ रुपए उनसे मिल जाते हैं, यह रक़म भी हाथ से निकल जायगी।

'पहले आप यह बता दें कि आप जाना चाहती हैं, या नहीं?'

'जाना तो चाहती हूँ; मगर फ्री पास मिल जाय!'

'तो यह मेरा जिम्मा रहा। आपको फ्री पास मिल जायगा।'

'जी नहीं, क्षमा कीजिए। मैं हार की ज़िल्लत नहीं उठाना चाहती। जब रानी साहब रुपए की थैलियाँ खोल देंगी और एक-एक वोट पर एक-एक अशी चढ़ने लगेगी, तो शायद आप भी उधर वोट देंगे।'

‘आपके खयाल में एलेक्शन महज़ रुपए से जीता जा सकता है।'

'जी नहीं, व्यक्ति भी एक चीज़ है। लेकिन मैंने केवल एक बार जेल जाने के सिवा और क्या जन-सेवा की है? और सच पूछिए तो उस बार भी मैं अपने मतलब ही से गयी थी, उसी तरह जैसे राय साहब और खन्ना गये थे। इस नयी सभ्यता का आधार धन है, विद्या और सेवा और कुल और जाति सब धन के सामने हेच है। कभी-कभी इतिहास में ऐसे अवसर आ जाते हैं, जब धन को आन्दोलन के सामने नीचा देखना पड़ता है। मगर इसे