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गो-दान
१५१
 

जिससे मैं आइंस्टीन के सिद्धान्त पर बहस कर सकूँ, या जो मेरी रचनाओं के प्रूफ़ देखा करे। मैं ऐसी औरत चाहता हूँ, जो मेरे जीवन को पवित्र और उज्ज्वल बना दे, अपने प्रेम और त्याग से।'

खुर्शेद ने दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए जैसे कोई भूली हुई बात याद करके कहा––आपका खयाल बहुत ठीक है मिस्टर मेहता! ऐसी औरत अगर कहीं मिल जाय, तो मैं भी शादी कर लूँ, लेकिन मुझे उम्मीद नहीं है कि मिले।

मेहता ने हँसकर कहा––आप भी तलाश में रहिए, मैं भी तलाश में हूँ। शायद कभी तक़दीर जागे।

'मगर मिस मालती आपको छोड़नेवाली नहीं। कहिए लिख दूँ।'

'ऐसी औरतों से मैं केवल मनोरंजन कर सकता हूँ, याह नहीं। ब्याह तो आत्मसमर्पण है।'

'अगर याह आत्म-समर्पण है, तो प्रेम क्या है?'

'प्रेम जब आत्म-समर्पण का रूप लेता है, तभी ब्याह है; उसके पहले ऐयाशी है।'

मेहता ने कपड़े पहने और विदा हो गये। शाम हो गयी थी। मिर्ज़ा ने जाकर देखा, तो गोबर अभी तक पेड़ों को सींच रहा था। मिर्ज़ा ने प्रसन्न होकर कहा––जाओ, अब तुम्हारी छुट्टी है। कल फिर आओगे?

गोबर ने कातर भाव से कहा––मैं कहीं नौकरी चाहता हूँ मालिक!

'नौकरी करना है,तो हम तुझे रख लेंगे।'

'कितना मिलेगा हुजूर!'

'जितना तू माँगे।'

'मैं क्या माँगू। आप जो चाहें दे दें।'

'हम तुम्हें पन्द्रह रुपए देंगे और खूब कसकर काम लेंगे।'

गोबर मेहनत से नहीं डरता। उसे रुपए मिलें, तो वह आठों पहर काम करने को तैयार है। पन्द्रह रुपए मिलें, तो क्या पूछना। वह तो प्राण भी दे देगा।

बोला––मेरे लिए कोठरी मिल जाय, वहीं पड़ा रहूँगा।

'हाँ-हाँ, जगह का इन्तज़ाम मैं कर दूँगा। इसी झोपड़ी में एक किनारे तुम भी पड़ रहना।'

गोबर को जैसे स्वर्ग मिल गया।


१४

होरी की फ़सल सारी की सारी डाँड़ की भेंट हो चुकी थी। बैशाख तो किसी तरह कटा, मगर जेठ लगते-लगते घर में अनाज का एक दाना न रहा। पाँच-पाँच पेट खानेवाले और घर में अनाज नदारद। दोनों जून न मिले, एक जून तो मिलना ही चाहिए। भरपेट न मिले, आधा पेट तो मिले। निराहार कोई कै दिन रह सकता है! उधार ले तो किससे! गाँव के सभी छोटे-बड़े महाजनों से तो मुँह चुराना पड़ता था। मजूरी भी