करे, तो किसकी। जेठ में अपना ही काम ढेरों था। ऊख की सिंचाई लगी हुई थी; लेकिन खाली पेट मेहनत भी कैसे हो!
साँझ हो गयी थी। छोटा बच्चा रो रहा था। माँ को भोजन न मिले, तो दूध कहाँ से निकले? सोना परिस्थिति समझती थी; मगर रूपा क्या समझे! बार-बार रोटी-रोटी चिल्ला रही थी। दिन-भर तो कच्ची अमिया से जी बहला; मगर अब तो कोई ठोस चीज चाहिए। होरी दुलारी सहुआइन से अनाज उधार माँगने गया था; पर वह दूकान बन्द करके पैठ चली गयी थी। मँगरू साह ने केवल इनकार ही न किया, लताड़ भी दी––उधार माँगने चले हैं, तीन साल से धेला सूद नहीं दिया, उस पर उधार दिये जाओ। अब आकबत में देंगे। खोटी नीयत हो जाती है, तो यही हाल होता है। भगवान से भी यह अनीति नहीं देखी जाती। कारकून की डाँट पड़ी, तो कैसे चुपके से रुपए उगल दिये। मेरे रुपए, रुपए ही नही हैं। और मेहरिया है कि उसका मिजाज ही नहीं मिलता।
वहाँ से रुआँसा होकर उदास बैठा था कि पुन्नी आग लेने आयी। रसोई के द्वार पर जाकर देखा तो अँधेरा पड़ा हुआ था। बोली––आज रोटी नहीं बना रही हो क्या भाभी जी? अब तो बेला हो गयी।
जब से गोबर भागा था, पुन्नी और धनिया में बोल-चाल हो गयी थी। होरी का एहसान भी मानने लगी थी। हीरा को अब वह गालियाँ देती थी––हत्यारा,गऊ-हत्या करके भागा। मुँह में कालिख लगी है, घर कैसे आये। और आये भी तो घर के अंदर पाँव न रखने दूं। गऊ-हत्या करते इसे लाज भी न आयी। बहुत अच्छा होता,पुलिस बांँधकर ले जाती और चक्की पिसवाती!
धनिया कोई बहाना न कर सकी। बोली––रोटी कहाँ से बने, घर में दाना तो है ही नहीं। तेरे महतो ने बिरादरी का पेट भर दिया, बाल-बच्चे मरें या जियें। अब बिरादरी झाँकती तक नहीं।
पुन्नी की फसल अच्छी हुई थी, और वह स्वीकार करती थी कि यह होरी का पुरुषार्थ है। हीरा के साथ कभी इतनी बरक्कत न हुई थी।
बोली––अनाज मेरे घर से क्यों नहीं मँगवा लिया? वह भी तो महतो ही की कमाई है कि किसी और की? सुख के दिन आयें, तो लड़ लेना; दुःख तो माथ रोने ही से कटता है। मैं क्या ऐसी अन्धी हूँ कि आदमी का दिल नहीं पहचानती। महतो ने न सँभाला होता, तो आज मुझे कहाँ सरन मिलती।
वह उलटे पाँव लौटी और सोना को भी साथ लेती गयी। एक क्षण में दो डल्ले अनाज से भरे लाकर आँगन में रख दिये। दो मन से कम जौ न था। धनिया अभी कुछ कहने न पायी थी कि वह फिर चल दी और एक क्षण में एक बड़ी-सी टोकरी अरहर की दाल से भरी हुई लाकर रख दी, और बोली––चलो, मैं आग जलाये देती हूँ।
धनिया ने देखा तो जौ के ऊपर एक छोटी-सी डलिया में चार-पाँच सेर आटा भी था। आज जीवन में पहली बार वह परास्त हुई। आँखों में प्रेम और कृतज्ञता के मोती भरकर बोली––सब का सब उठा लायी कि घर में भी कुछ छोड़ा? कहीं भागा जाता था?