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गो-दान
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आँगन में बच्चा खटोले पर पड़ा रो रहा था। पुनिया उसे गोद में लेकर दुलराती हुई बोली––तुम्हारी दया से अभी बहुत है भाभीजी! पन्द्रह मन तो जौ हुआ है और दस मन गेहूँ। पाँच मन मटर हुआ, तुमसे क्या छिपाना है। दोनों घरों का काम चल जायगा। दो-तीन महीने में फिर मकई हो जायगी। आगे भगवान मालिक है।।

झुनिया ने आकर अंचल से छोटी सास के चरण छुए। पुनिया ने असीस दिया। सोना आग जलाने चली, रूपा ने पानी के लिए कलसा उठाया। रुकी हुई गाड़ी चल निकली। जल में अवरोध के कारण जो चक्कर था, फेन था, शोर था, गति की तीव्रता थी, वह अवरोध के हट जाने से शान्त मधुर-ध्वनि के साथ सम, धीमी, एक-रस धार में बहने लगी।

पुनिया बोली––महतो को डाँड़ देने की ऐसी जल्दी क्या पड़ी थी?

धनिया ने कहा––बिरादरी में सुरखरू कैसे होते।

'भाभी, बुरा न मानो, तो एक बात कहूँ?'

'कह, बुरा क्यों मानूँगी?'

'न कहूँगी, कहीं तुम बिगड़ने न लगो?'

'कहती हूँ, कुछ न बोलूंँगी,कह तो।'

'तुम्हें झुनिया को घर में रखना न चाहिए था।'

'तब क्या करती? वह डूबी मरती थी।'

'मेरे घर में रख देती। तब तो कोई कुछ न कहता।'

'यह तो तू आज कहती है। उस दिन भेज देती, तो झाडू़ लेकर दौड़ती!'

'इतने खरच में तो गोबर का ब्याह हो जाता।'

'होनहार को कौन टाल सकता है पगली! अभी इतने ही से गला नहीं छूटा भोला अब अपनी गाय के दाम माँग रहा है। तब तो गाय दी कि मेरी सगाई कहीं ठीक कर दो। अब कहता है, मुझे सगाई नही करनी, मेरे रुपए दे दो। उसके दोनों बेटे लाठी लिये फिरते हैं। हमारे कौन बैठा है, जो उससे लड़े! इस सत्यानासी गाय ने आकर चौपट कर दिया।'

कुछ और बातें करके पुनिया आग लेकर चली गयी। होरी सब कुछ देख रहा था। भीतर आकर बोला––पुनिया दिल की साफ़ है।

'हीरा भी तो दिल का साफ़ था?'

धनिया ने अनाज तो रख लिया था;पर मन में लज्जित और अपमानित हो रही थी। यह दिनों का फेर है कि आज उसे यह नीचा देखना पड़ा।

'तू किसी का औसान नहीं मानती, यही तुझमें बुराई है।

'औसान क्यों मानूँ? मेरा आदमी उसकी गिरस्ती के पीछे जान नहीं दे रहा है? फिर मैंने दान थोड़े ही लिया है। उसका एक-एक दाना भर दूँगी।'

मगर पुनिया अपनी जिठानी के मनोभाव समझकर भी होरी का एहसान चुकाती जाती थी। जब यहाँ अनाज चुक जाता, मन दो मन दे जाती; मगर जब चौमासा आ गया और वर्षा न हुई, तो समस्या अत्यन्त जटिल हो गयी। सावन का महीना आ गया

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