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गो-दान
 


और जुर्माना लेते शरमाऊँ? यह न समझिए कि आप ही किसानों के हित का बीड़ा उठाये हुए हैं। मुझे किसानों के साथ जलना-मरना है,मुझसे बढ़कर दूसरा उनका हितेच्छु नहीं हो सकता;लेकिन मेरी गुजर कैसे हो!अफ़सरों को दावतें कहाँ से दूंँ,सरकारी चन्दे कहाँ से दूंँ,खानदान के सैकड़ों आदमियों की ज़रूरतें कैसे पूरी करूँ! मेरे घर का क्या खर्च है,यह शायद आप जानते हैं। तो क्या मेरे घर में रुपये फलते है? आयेगा तो आसामियों ही के घर से। आप समझते होंगे,जमींदार और ताल्लकेदार सारे संसार का मुख भोग रहे हैं। उनकी असली हालत का आपको ज्ञान नहीं;अगर वह धर्मात्मा बन कर रहें,तो उनका ज़िन्दा रहना मुश्किल हो जाय। अफ़सरों को डालियाँ न दें,तो जेलखाना घर हो जाय। हम बिच्छू नहीं हैं कि अनायास ही सवको डंक मारते फिरें। न गरीबों का गला दबाना कोई बड़े आनन्द का काम है;लेकिन मर्यादाओं का पालन तो करना ही पड़ता है। जिस तरह आप मेरी रईसी का फायदा उठाना चाहते हैं,उसी तरह और सभी हमें सोने की मुर्गी ममझते हैं। आइए मेरे बॅगले पर तो दिखाऊँ कि सुबह से शाम तक कितने निशाने मुझ पर पड़ते हैं। कोई काश्मीर मे शाल-दुगाला लिये चला आ रहा है,कोई इत्र और तम्बाकू का एजेंट है,कोई पुस्तकों और पत्रिकाओं का,कोई जीवन-बीमे का,कोई ग्रामोफोन लिये सिर पर सवार है,कोई कुछ। चन्देवाले तो अनगिनती। क्या सबके सामने अपना दुग्वड़ा लेकर बैठ जाऊँ? ये लोग मेरे द्वार पर दुखडा़ मुनाने आते हैं? आते है मुझे उल्लू बनाकर मुझसे कुछ ऐंठने के लिए। आज मर्यादा का विचार छोड़ दूंँ,तो तालियांँ पिटने लगें। हुक्काम को डालियों न दें,तो बागी समझा जाऊंँ। तब आप अपने लम्बों से मेरी रक्षा न करेंगे। कांग्रेस में शरीक हुआ,उसका तावान अभी तक देता जाता हूँ। काली किताब में नाम दर्ज हो गया। मेरे सिर पर कितना कर्ज है,यह भी कभी आपने पूछा है? अगर सभी महाजन डिग्रियाँ करा ले,तो मेरे हाथ की यह अंगूठी तक बिक जायगी। आप कहेंगे,क्यों यह आडम्बर पालते हो। कहिए,मात पुश्तों से जिस वातावरण में पला हूंँ, उससे अब निकल नहीं सकता। घास छीलना मेरे लिए असम्भव है। आपके पास जमीन नहीं,जायदाद नहीं,मर्यादा का झमेला नहीं,आप निर्भीक हो सकते हैं;लेकिन आप भी दुम दबाये बैठे रहते हैं। आपको कुछ खबर है,अदालतों में कितनी रिश्वतें चल रही है,कितने गरीबों का खून हो रहा है,कितनी देवियाँ भ्रष्ट हो रही है! है बूता लिखने का? सामग्री में देता हूँ,प्रमाणसहित।

ओंकारनाथ कुछ नर्म होकर बोले--जब कभी अवसर आया है,मैंने क़दम पीछ नहीं हटाया।

राय साहब भी कुछ नर्म हुए--हाँ,मैं स्वीकार करता हूँ कि दो-एक मौकों पर आपने जवाँमरदी दिखायी है। लेकिन आप की निगाह हमेशा अपने लाभ की ओर रही है,प्रजा-हित की ओर नहीं। आँखें न निकालिए और न मुँह लाल कीजिए। जब कभी आप मैदान में आये हैं,उसका शुभ परिणाम यही हुआ कि आपके सम्मान और प्रभाव और आमदनी में इज़ाफ़ा हुआ है। अगर मेरे साथ भी आप वही चाल चल रहे