पृष्ठ:गो-दान.djvu/१७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
गो-दान १७७


हों, तो मैं आपकी खातिर करने को तैयार हूँ। रुपए न दूंँगा;क्योंकि वह रिश्वत है। आपकी पत्नीजी के लिए कोई आभूषण बनवा दूंँगा। है मंजूर? अब मैं आपसे सत्य कहता है कि आपको जो संवाद मिला वह गलत है;मगर यह भी कह देना चाहता हूँ कि अपने और सभी भाइयों की तरह मैं भी असामियों से जुर्माना लेता हूँ और साल में दस-पाँच हज़ार रुपए मेरे हाथ लग जाते हैं,और अगर आप मेरे मुंँह से यह कौर छीनना चाहेंगे,तो आप घाटे में रहेंगे। आप भी संसार में सुख से रहना चाहते हैं,मैं भी चाहता हूँ। इससे क्या फ़ायदा कि आप न्याय और कर्तव्य का ढोंग रचकर मुझे भी जेरबार करें,खुद भी जेरबार हों। दिल की बात कहिए। मैं आपका बैरी नहीं हूँ। आपके साथ कितनी ही बार एक चौके में,एक मेज़ पर खा चुका हूँ। मैं यह भी जानता हूँ कि आप तकलीफ़ में है। आपकी हालत शायद मेरी हालत से भी खराब है। हाँ,अगर आप ने हरिश्चन्द्र बनने की कसम खा ली है,तो आप की खुशी। मैं चलता हूँ।

राय साहब कुरसी से उठ खड़े हुए। ओंकारनाथ ने उनका हाथ पकड़कर संधिभाव मे कहा--नहीं-नहीं,अभी आपको बैठना पड़ेगा। मैं अपनी पोजीशन साफ कर देना चाहता हूँ। आपने मेरे साथ जो सलूक किये हैं,उनके लिए मैं आपका आभारी हूंँ; लेकिन यहाँ सिद्धान्त की बात आ गयी है और आप जानते हैं, सिद्धान्त प्राणों में भी प्यारे होते हैं।

राय साहब कुर्सी पर बैठकर जरा मीठे स्वर में बोले--अच्छा भाई,जो चाहे लिखो। मैं तुम्हारे सिद्धान्त को तोड़ना नहीं चाहता। और तो क्या होगा,बदनामी होगी। हाँ,कहाँ तक नाम के पीछे मरूँ! कौन ऐसा ताल्लुकेदार है,जो असामियों को थोड़ा- बहुत नहीं सताता। कुत्ता हड्डी की रखवाली करे तो खाय क्या? मैं इतना ही कर सकता हूँ कि आगे आपको इस तरह की कोई शिकायत न मिलेगी;अगर आपको मुझ पर कुछ विश्वास है,तो इस बार क्षमा कीजिए। किसी दूसरे सम्पादक से मैं इस तरह की खुशामद न करता। उसे सरे बाज़ार पिटवाता;लेकिन मुझसे आपकी दोस्ती है;इसलिए दबना ही पड़ेगा। यह समाचार-पत्रों का युग है। सरकार तक उनसे डरती है,मेरी हस्ती क्या! आप जिसे चाहें बना दें। खैर यह झगड़ा खतम कीजिए। कहिए, आजकल पत्र की क्या दशा है? कुछ ग्राहक बढ़े?

ओंकारनाथ ने अनिच्छा के भाव से कहा--किसी न किसी तरह काम चल जाता है और वर्तमान परिस्थिति में मैं इससे अधिक आशा नहीं रखता। मैं इस तरफ धन और भोग की लालसा लेकर नहीं आया था;इसलिए मुझे शिकायत नहीं है। मैं जनता की सेवा करने आया था और वह यथाशक्ति किये जाता है। राष्ट्र का कल्याण हो,यही मेरी कामना है। एक व्यक्ति के सुख-दुःख का कोई मूल्य नहीं।

राय साहब ने जरा और सहृदय होकर कहा-- यह सब ठीक है भाई साहब;लेकिन सेवा करने के लिए भी जीना जरूरी है। आर्थिक चिन्ताओं में आप एकाग्रचित्त होकर सेवा भी तो नहीं कर सकते। क्या ग्राहक-संख्या बिलकुल नहीं बढ़ रही है?