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गो-दान
 

आँखें न खुलती होंगी। विवाहित जीवन की दुर्दशा आँखों देखकर अगर वह इस जाल में नहीं फंँसती, तो क्या बुरा करती है!

चिड़ियाघर में चारों तरफ़ सन्नाटा छाया हुआ था। गोविन्दी ने ताँगा रोक दिया और बच्चे को लिए हरी दूब की तरफ़ चली; मगर दो ही तीन क़दम चली थी कि चप्पल पानी में डूब गये। अभी थोड़ी देर पहले लान सींचा गया था और घास के नीचे पानी बह रहा था। उस उतावली में उसने पीछे न फिरकर एक क़दम और आगे रखा तो पाँव कीचड़ में सन गये। उसने पाँव की ओर देखा। अब यहाँ पाँव धोने को पानी कहाँ से मिलेगा? उसकी सारी मनोव्यथा लुप्त हो गयी। पाँव धोकर साफ़ करने की नयी चिन्ता हुई। उसकी विचार-धारा रुक गयी। जब तक पाँव न साफ़ हो जायँ वह कुछ नहीं सोच सकती।

सहसा उसे एक लम्बा पाइप घास में छिपा नज़र आया,जिसमें से पानी बह रहा था। उसने जाकर पाँव धोये, चप्पल धोये, हाथ-मुँह धोया, थोड़ा-सा पानी चुल्लू में लेकर पिया और पाइप के उस पार सूखी ज़मीन पर जा बैठी। उदासी में मौत की याद तुरंत आ जाती है। कहीं वह वहीं बैठे-बैठे मर जाय, तो क्या हो? ताँगेवाला तुरन्त जाकर खन्ना को खबर देगा। खन्ना सुनते ही खिल उठेगे; लेकिन दुनिया को दिखाने के लिए आँखों पर रूमाल रख लेंगे। बच्चों के लिए खिलौने और तमाशे माँ से प्यारे हैं। यह है उसका जीवन, जिसके लिए कोई चार बूँद आँसू बहानेवाला भी नहीं। तब उसे वह दिन याद आया, जब उसकी सास जीती थी और खन्ना उड़ंछू न हुए थे, तब उसे सास का बात-बात पर बिगड़ना बुरा लगता था; आज उसे सास के उम क्रोध में स्नेह का रस घुला जान पड़ रहा था। तब वह सास से रूठ जाती थी और सास उसे दुलारकर मनाती थी। आज वह महीनों रूठी पड़ी रहे। किसे परवा है? एकाएक उसका मन उड़कर माता के चरणों में जा पहुँचा। हाय! आज अम्माँ होतीं, तो क्यों उसकी यह दुर्दशा होती! उसके पास और कुछ न था, स्नेह-भरी गोद तो थी, प्रेम-भरा अंचल तो था, जिसमें मुँह डालकर वह रो लेती; लेकिन नहीं, वह रोयेगी नहीं, उस देवी को स्वर्ग में दुखी न बनायेगी, मेरे लिए वह जो कुछ ज्यादा से ज्यादा कर सकती थी, वह कर गयी। मेरे कर्मों की साथिन होना तो उनके वश की बात न थी। और वह क्यों रोये? वह अब किसी के अधीन नहीं है, वह अपने गुजरभर को कमा सकती है। वह कल ही गान्धी-आश्रम से चीजें लेकर बेचना शुरू कर देगी। शर्म किस बात की? यही तो होगा, लोग उँगली दिखाकर कहेंगे––वह जा रही है खन्ना की बीबी; लेकिन इस शहर में रहूँ क्यों? किसी दूसरे शहर में क्यों न चली जाऊँ, जहाँ मुझे कोई जानता ही न हो। दस-बीस रुपए कमा लेना ऐसा क्या मुश्किल है। अपने पसीने की कमाई तो खाऊँगी, फिर तो कोई मुझ पर रोब न जमायेगा। यह महाशय इसीलिए तो इतना मिज़ाज करते हैं कि वह मेरा पालन करते हैं। मैं अब खुद अपना पालन करूँगी।

सहसा उसने मेहता को अपनी तरफ़ आते देखा। उसे उलझन हुई। इस वक्त