१८ | गोदान |
कार ही नहीं है। मैं अगर रोता हूँ, तो दुःख की हँसी उड़ाता हूँ। मैं अगर बीमार होता हूँ, तो मुझे सुख होता है। मैं अगर अपना ब्याह करके घर में कलह नहीं बढ़ाता तो यह मेरी नीच स्वार्थपरता है; अगर व्याह कर लूं, तो वह विलासांधता होगी। अगर शराब नहीं पीता तो मेरी कंजूसी है। शराब पीने लगूं, तो वह प्रजा का रक्त होगा। अगर ऐयाशी नहीं करता,तो अरसिक हूँ; ऐयाशी करने लगूं, तो फिर कहना ही क्या। इन लोगों ने मुझे भोग-विलास में फंसाने के लिए कम चालें नहीं चलीं और अब तक चलते जाते हैं। उनकी यही इच्छा है कि मैं अन्धा हो जाऊँ और ये लोग मुझे लूट लें, और मेरा धर्म यह है कि सब कुछ देखकर भी कुछ न देखू। सब कुछ जानकर भी गधा बना रहूँ।
राय साहब ने गाड़ी को आगे बढ़ाने के लिए दो वीड़े पान खाये और होरी के मुंह की ओर ताकने लगे,जैसे उसके मनोभावों को पढ़ना चाहते हों।
होरी ने साहस बटोरकर कहा-हम समझते थे कि ऐसी बातें हमीं लोगों में होती हैं, पर जान पड़ता है,बड़े आदमियों में भी उनकी कमी नहीं है।
राय साहब ने मुंह पान से भरकर कहा-तुम हमें बड़ा आदमी समझते हो? हमारे नाम बड़े हैं, पर दर्शन थोड़े। गरीबों में अगर ईर्ष्या या वैर है तो स्वार्थ के लिए या पेट के लिए। ऐसी ईर्ष्या और वैर को मैं क्षम्य समझता हूँ। हमारे मुंह की रोटी कोई छीन ले तो उसके गले में उँगली डालकर निकालना हमारा धर्म हो जाता है। अगर हम छोड़ दें, तो देवता हैं। बड़े आदमियों की ईर्ष्या और वैर केवल आनन्द के लिए है। हम इतने बड़े आदमी हो गये हैं कि हमें नीचता और कुटिलता में ही निःस्वार्थ और परम आनन्द मिलता है। हम देवतापन के उस दर्जे पर पहुँच गये हैं जव हमें दूसरों के रोने पर हंसी आती है। इसे तुम छोटी साधना मत समझो। जव इतना बड़ा कुटुम्ब है, तो कोई-न-कोई तो हमेशा बीमार रहेगा ही। और बड़े आदमियों के रोग भी बड़े होते हैं। वह बड़ा आदमी ही क्या,जिसे कोई छोटा रोग हो। मामूली ज्वर भी आ जाय,तो हमें सरसाम की दवा दी जाती है,मामूली फन्सी भी निकल आये, तो वह जहरवाद बन जाती है। अब छोटे सर्जन और मझोले सर्जन और बड़े सर्जन तार से बुलाये जा रहे हैं,मसीहुलमुल्क को लाने के लिए दिल्ली आदमी भेजा जा रहा है,भिषगाचार्य को लाने के लिए कलकत्ता। उधर देवालय में दुर्गापाठ हो रहा है और ज्योतिपाचार्य कुण्डली का विचार कर रहे हैं और तन्त्र के आचार्य अपने अनुष्ठान में लगे हुए हैं। राजा साहब को यमराज के मुंह से निकालने के लिए दौड़ लगी हुई है। वैद्य और डाक्टर इस ताक में रहते हैं कि कब इनके सिर में दर्द हो और कब उसके घर में सोने की वर्षा हो। और ये रुपए तुमसे और तुम्हारे भाइयों से वसूल किये जाते हैं,भाले की नोक पर। मुझे तो यही आश्चर्य होता है कि क्यों तुम्हारी आहों का दावानल हमें भस्म नहीं कर डालता;मगर नहीं, आश्चर्य करने की कोई बात नहीं। भस्म होने में तो बहुत देर नहीं लगती,वेदना भी थोड़ी ही देर की होती है।हम जौ-जौ और अंगुलअंगुल और पोर-पोर भस्म हो रहे हैं। उस हाहाकार से बचने के लिए हम पुलिस की, हुक्काम की,अदालत की,वकीलों की शरण लेते हैं।और रूपवती स्त्री की भाँति सभी के