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गो-दान
 

मिर्जा ने खड़े-खड़े कहा-तुम्हारे पास कुछ रुपए हों, तो दे दो। आज तीन दिन से बोतल खाली पड़ी हुई है,जी बहुत बेचैन हो रहा है।

गोबर ने इसके पहले भी दो-तीन बार मिर्जाजी को रुपए'दिये थे;पर अब तक वसूल न कर सका था। तक़ाजा करते डरता था और मिर्जाजी रुपए लेकर देना न जानते थे। उनके हाथ में रुपए टिकते ही न थे। इधर आये उधर गायव। यह तो न कह सका,मैं रुपए न दूंगा या मेरे पास रुपए नहीं हैं,शराब की निन्दा करने लगाआप इसे छोड़ क्यों नहीं देते सरकार? क्या इसके पीने से कुछ फ़ायदा होता है?

मिर्जाजी ने कोठरी के अन्दर खाट पर बैठते हुए कहा-तुम समझते हो, मैं छोड़ना नहीं चाहता और शौक़ से पीता हूँ। मैं इसके वगैर जिन्दा नहीं रह सकता। तुम अपने रुपए के लिए न डरो,मैं एक-एक कौड़ी अदा कर दूंगा।

गोवर अविचलित रहा--मैं सच कहता हूँ मालिक! मेरे पास इस समय रुपए होते तो आपसे इनकार करता?

'दो रुपए भी नहीं दे सकते?'

'इस समय तो नहीं हैं।'

'मेरी अँगूठी गिरो रख लो।'

गोबर का मन ललचा उठा;मगर वात कैसे बदले।

बोला-यह आप क्या कहते हैं मालिक,रुपये होते तो आपको दे देता,अंगूठी की कौन बात थी?

मिर्जा ने अपने स्वर में बड़ा दीन आग्रह भरकर कहा-मैं फिर तुमसे कभी न माँगूंगा गोबर! मुझसे खड़ा नहीं हुआ जा रहा है। इस शराब की बदौलत मैंने लाखों की हैसियत बिगाड़ दी और भिखारी हो गया। अब मुझे भी ज़िद पड़ गयी है कि चाहे भीख ही माँगनी पड़े,इसे छोडगा नहीं।

जब गोबर ने अवकी बार इनकार किया,तो मिर्जा साहब निराश होकर चले गये। शहर में उनके हज़ारों मिलनेवाले थे। कितने ही उनकी बदौलत बन गये थे। कितनों ही को गाढ़े समय पर मदद की थी;पर ऐसे से वह मिलना भी न पसन्द करते थे। उन्हें ऐसे हज़ारों लटके मालूम थे,जिससे वह समय-समय पर रुपयों के ढेर लगा देते थे;पर पैसे की उनकी निगाह में कोई क़द्र न थी। उनके हाथ में रुपए जैसे काटते थे। किसी न किसी बहाने उड़ाकर ही उनका चित्त शान्त होता था।

गोबर आलू छीलने लगा। साल-भर के अन्दर ही वह इतना काइयाँ हो गया था और पैसा जोड़ने में इतना कुशल कि अचरज होता था। जिस कोठरी में वह रहता है,वह मिर्जा साहब ने दी है। इस कोठरी और बरामदे का किराया बड़ी आसानी से पाँच रुपया मिल सकता है। गोबर लगभग साल-भर से उसमें रहता है। लेकिन मिर्जा ने न कभी किराया माँगा न उसने दिया। उन्हें शायद खयाल भी न था कि इस कोठरी का कुछ किराया भी मिल सकता है।

थोड़ी देर में एक इक्केवाला रुपये माँगने आया। अलादीन नाम था,सिर घुटा