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गो-दान
 


करता जाता था। उसके भीतर जैसे आग लगी हुई थी। उसमें अलौकिक शक्ति आ गयी थी। उसमें जो पीढ़ियों का संचित पानी था,वह इस समय जैसे भाप बनकर उसे यन्त्र की-सी अन्ध-शक्ति प्रदान कर रहा था। उसकी आँखों में अँधेरा छाने लगा। सिर में फिरकी-सी चल रही थी। फिर भी उसके हाथ यन्त्र की गति-से,बिना थके,बिना रुके,उठ रहे थे। उसकी देह से पसीने की धारा निकल रही थी,मुंँह से फिचकुर छूट रहा था, सिर में धम-धम का शब्द हो रहा था,पर उस पर जैसे कोई भूत सवार हो गया हो।

सहसा उसकी आँखों में निबिड़ अन्धकार छा गया। मालूम हुआ वह जमीन में घुसा जा रहा है। उसने सँभलने की चेष्टा से शून्य में हाथ फैला दिये,और अचेत हो गया। गँडासा हाथ से छूट गया और वह औंधे मुंँह जमीन पर पड़ गया।

उसी वक्त धनिया ऊख का गट्ठा लिये आयी। देखा तो कई आदमी होरी को घेरे खड़े हैं। एक हलवाहा दातादीन से कह रहा था--मालिक तुम्हें ऐसी बात न कहनी चाहिए,जो आदमी को लग जाय। पानी मरते ही मरते तो मरेगा।

धनिया ऊख का गट्ठा पटककर पागलों की तरह दौड़ी हुई होरी के पास गयी,और उसका सिर अपनी जाँघ पर रखकर विलाप करने लगी--तुम मुझे छोड़कर कहाँ जाते हो। अरी सोना, दौड़कर पानी ला और जाकर शोभा से कह दे,दादा बेहाल हैं। हाय भगवान्! अब मैं कहाँ जाऊँ। अब किसकी होकर रहूँगी,कौन मुझे धनिया कहकर पुकारेगा।..

लाला पटेश्वरी भागे हुए आये और स्नेह भरी कठोरता से बोले-- क्या करती है धनिया,होश सँभाल। होरी को कुछ नहीं हुआ। गर्मी से अचेत हो गये हैं। अभी होश आया जाता है। दिल इतना कच्चा कर लेगी,तो कैसे काम चलेगा?

धनिया ने पटेश्वरी के पाँव पकड़ लिये और रोती हुई बोली--क्या करूँ लाला,जी नहीं मानता। भगवान ने सब कुछ हर लिया। मैं सबर कर गयी। अब सबर नहीं होता। हाय रे मेरा हीरा!

सोना पानी लायी। पटेश्वरी ने होरी के मुंँह पर पानी के छींटे दिये। कई आदमी अपनी-अपनी अंँगोछियों से हवा कर रहे थे। होरी की देह ठण्डी पड़ गयी थी। पटेश्वरी को भी चिंता हुई;पर धनिया को वह बराबर साहस देते जाते थे।

धनिया अधीर होकर बोली--ऐसा कभी नहीं हुआ था। लाला,कभी नहीं।

पटेश्वरी ने पूछा--रात कुछ खाया था?

धनिया बोली--हाँ,रोटियाँ पकायी थीं;लेकिन आजकल हमारे ऊपर जो बीत रही है,वह क्या तुमसे छिपा है? महीनों से भरपेट रोटी नसीब नहीं हुई। कितना समझाती हूँ,जान रखकर काम करो;लेकिन आराम तो हमारे भाग्य में लिखा ही नहीं।

सहसा होरी ने आँखें खोल दी और उड़ती हुई नजरों से इधर-उधर ताका।

धनिया जैसे जी उठी। विह्वल होकर उसके गले से लिपटकर बोली--अब कैसा जी