दातादीन मजूरों से रगड़कर काम लेते थे;इसलिए उनके यहाँ कोई मजूर टिकता न था। होरी उसका स्वभाव जानता था;पर जाता कहाँ!
पण्डित उसके सामने खड़े होकर बोले--चलाने-चलाने में भेद है। एक चलाना वह है कि घड़ी भर में काम तमाम, दूसरा चलाना वह है कि दिन-भर में भी एक बोझ ऊख न कटे।
होरी ने विष का घूँट पीकर और जोर से हाथ चलाना शुरू किया,इधर महीनों से उसे भर-पेट भोजन न मिलता था। प्रायः एक जून तो चबैने पर ही कटता था,दूसरे जून भी कभी आधा पेट भोजन मिला,कभी कड़ाका हो गया;कितना चाहता था कि हाथ और जल्दी उठे,मगर हाथ जवाब दे रहा था। उस पर दातादीन सिर पर सवार थे। क्षण-भर दम ले लेने पाता,तो ताजा हो जाता;लेकिन दम कैसे ले? घुड़कियाँ पड़ने का भय था।
धनिया और तीनों लड़कियाँ ऊख के गढ़े लिये गीली माड़ियों से लथपथ,कीचड़ में सनी हुई आयीं,और गट्टे पटककर दम मारने लगी कि दातादीन ने डाँट बताई-- यहाँ तमाशा क्या देखती हे धनिया? जा अपना काम कर। पैसे सेंत में नहीं आते। पहर-भर में तू एक खेप लायी है। इस हिसाब से तो दिन भर में भी ऊख न ढुल पायेगी।
धनिया ने त्योरी बदलकर कहा--क्या जरा दम भी न लेने दोगे महराज! हम भी तो आदमी हैं। तुम्हारी मजूरी करने से बैल नहीं हो गये। जरा मूड़ पर एक गठ्ठा लादकर लाओ तो हाल मालूम हो।
दातादीन बिगड़ उठे--पैसे देने हैं काम करने के लिए, दम मारने के लिए नहीं। दम मार लेना है,तो घर जाकर दम लो।
धनिया कुछ कहने ही जा रही थी कि होरी ने फटकार बताई–-तु जाती क्यों नहीं धनिया? क्यों हुज्जत कर रही है?
धनिया ने बीड़ा उठाते हुए कहा--जा तो रही हूँ, लेकिन चलते हुए बैल को औंगी न देना चाहिए।
दातादीन ने लाल आँखें निकाल लीं--जान पड़ता है, अभी मिजाज ठण्डा नहीं हुआ। जभी दाने-दाने को मोहताज हो।
धनिया भला क्यों चुप रहने लगी थी--तुम्हारे द्वार पर भीख माँगने तो नहीं जाती।
दातादीन ने पैने स्वर में कहा--अगर यही हाल है तो भीख भी भाँगेगी।
धनिया के पास जवाब तैयार था;पर सोना उसे खींचकर तलैया की ओर ले गयी,नहीं बात बढ़ जाती;लेकिन आवाज की पहुंँच के बाहर जाकर दिल की जलन निकाली--(भीख माँगो तुम,जो भिखमंगे की जात हो। हम तो मजूर ठहरे,जहाँ काम करेंगे,वहीं चार पैसे पायेंगे।)
सोना ने उसका तिरस्कार किया--अम्माँ,जाने भी दो। तुम तो समय नहीं देखतीं,बात-बात पर लड़ने बैठ जाती हो।
होरी उन्मत्त की भाँति सिर से ऊपर गँडा़सा उठा-उठाकर ऊख के टुकड़ों के ढेर