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गो-दान
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जंगी उसका ठाट-बाट देखकर रोब में आ गया। उसे कभी चमरौधे जूते भी मयस्सर न हुए थे। और गोबर चमाचम बूट पहने हुए था। साफ-सुथरी,धारीदार कमीज,सँवारे हुए बाल,पूरा बाबू साहब बना हुआ। फटेहाल गोबर और इस परिष्कृत गोबर में बड़ा अन्तर था। हिंसा-भाव कुछ तो यों ही समय के प्रभाव से शान्त हो गया था और बचा-खुचा अब शान्त हो गया। जुआड़ी था ही,उस पर गाँजे की लत। और घर में बड़ी मुश्किल से पैसे मिलते थे। मुंँह में पानी भर आया। बोला--चलूँगा क्यों नहीं,यहाँ पड़ा-पड़ा मक्खी ही तो मार रहा हूँ। के रुपए मिलेंगे?

गोबर ने बड़े आत्मविश्वास से कहा--इसकी कुछ चिन्ता न करो। सब कुछ अपने ही हाथ में है। जो चाहोगे,वह हो जायगा। हमने सोचा,जब घर में ही आदमी है,तो बाहर क्यों जायँ।

जंगी ने उत्सुकता से पूछा--काम क्या करना पड़ेगा?

'काम चाहे चौकीदारी करो,चाहे तगादे पर जाओ। तगादे का काम सबसे अच्छा। असामी से गठ गये। आकर मालिक से कह दिया घर पर है नहीं,चाहो तो रुपए-आठ आने रोज बना सकते हो।'

'रहने की जगह भी मिलती है?'

'जगह की कौन कमी। पूरा महल पड़ा है। पानी का नल,बिजली। किसी बात की कमी नहीं है। कामता हैं कि कहीं गये हैं?'

'दूध लेकर गये हैं। मुझे कोई बाजार नहीं जाने देता। कहते हैं, तुम तो गाँजा पी जाते हो। मैं अब बहुत कम पीता हूँ भैया,लेकिन दो पैसे रोज़ तो चाहिए ही। तुम कामता से कुछ न कहना। मैं तुम्हारे साथ चलूंँगा।'

'हाँ-हाँ,बेखटके चलो। होली के बाद।'

'तो पक्की रही।'

दोनों आदमी बातें करते भोला के द्वार पर आ पहुँचे। भोला बैठे सुतली कात रहे थे। गोबर ने लपक कर उनके चरण छुए और इस वक्त उसका गला सचमुव भर आया। बोला--काका, मुझसे जो कुछ भूल-चूक हुई,उसे क्षमा करो।

भोला ने सुतली कातना बन्द कर दिया और पथरीले स्वर में बोला--काम तो तुमने ऐसा ही किया था गोबर,कि तुम्हारा सिर काट लूंँ तो भी पाप न लगे;लेकिन अपने द्वार पर आये हो,अब क्या कहूँ! जाओ,जैसा मेरे साथ किया उसकी सजा भगवान देंगे। कब आये?

गोबर ने खूब नमक-मिर्च लगाकर अपने भाग्योदय का वृत्तान्त कहा,और जंगी को अपने साथ ले जाने की अनुमति मांँगी। भोला को जैसे बेमांँगे वरदान मिल गया। जंगी घर पर एक-न-एक उपद्रव करता रहता था। बाहर चला जायगा,तो चार पैसे पैदा तो करेगा। न किसी को कुछ दे,अपना बोझ तो उठा लेगा।

गोबर ने कहा--नहीं काका,भगवान ने चाहा और इनसे रहते बना तो साल दो साल में आदमी हो जायँगे।