'हाँ,जब इनसे रहते बने।'
"सिर पर आ पड़ती है,तो आदमी आप सँभल जाता है।'
'तो कब तक जाने का विचार है?'
'होली करके चला जाऊँगा। यहाँ खेती-बारी का सिलसिला फिर जमा दूं,तो निसचिन्त हो जाऊँ।'
'होरी से कहो,अब बैठ के राम-राम करें।'
'कहता तो हूँ,लेकिन जब उनसे बैठा जाय।'
'वहाँ किसी वैद से तो तुम्हारी जान-पहचान होगी। खाँसी बहुत दिक कर रही है। हो सके तो कोई दवाई भेज देना।'
'एक नामी वैद तो मेरे पड़ोस ही में रहते हैं। उनसे हाल कहके दवा बनवा कर भेज दूंगा। खाँसी रात को जोर करती है कि दिन को?'
नहीं बेटा, रात को। आँख नहीं लगती। नहीं वहाँ कोई डौल हो,तो मैं भी वहीं चलकर रहूँ। यहाँ तो कुछ परता नहीं पड़ता।'
'रोजगार का जो मजा वहाँ है काका,यहाँ क्या होगा? यहाँ रुपए का दस सेर दूध भी कोई नहीं पूछता। हलवाइयों के गले लगाना पड़ता है। वहाँ पाँच-छ:सेर के भाव से चाहो तो एक घड़ी में मनों दूध बेच लो।'
जंगी गोवर के लिए दूधिया शर्वत वनाने चला गया था। भोला ने एकान्त देखकर कहा-और भैया! अव इस जंजाल से जी ऊब गया है। जंगी का हाल देखते ही हो। कामता दूध लेकर जाता है। सानी-पानी,खोलना-बाँधना,सब मुझे करना पड़ता है। अब तो यही जी चाहता है कि सुख से कहीं एक रोटी खाऊँ और पड़ा रहूँ। कहाँ तक हाय-हाय करूँ। रोज लड़ाई-झगड़ा। किस-किस के पाँव सहलाऊँ। खाँसी आती है,रात को उठा नहीं जाता;पर कोई एक लोटे पानी को भी नहीं पूछता। पगहिया टूट गयी है,मुदा किसी को इसकी सुधि नहीं है। जब मैं बनाऊँगा तभी बनेगी।
गोवर ने आत्मीयता के साथ कहा—तुम चलो लखनऊ काका। पाँच सेर का दूध बेचो,नगद। कितने ही बड़े-बड़े अमीरों से मेरी जान-पहचान है। मन-भर दूध की निकासी का जिम्मा मैं लेता हूँ। मेरी चाय की दूकान भी है। दस सेर दूध तो मैं ही नित लेता हूँ। तुम्हें किसी तरह का कष्ट न होगा।
जंगी दूधिया शर्बत ले आया। गोबर ने एक गिलास शर्वत पीकर कहा-तुम तो खाली साँझ सबेरे चाय की दूकान पर बैठ जाओ काका,तो एक रुपया कहीं नहीं गया है।
भोला ने एक मिनट के बाद संकोच भरे भाव से कहा-क्रोध में बेटा,आदमी अन्धा हो जाता है। मैं तुम्हारी गोई खोल लाया था। उसे लेते जाना। यहाँ कौन खेती-बारी होती है।
'मैंने तो एक नयी गोईं ठीक कर ली है काका!'
'नहीं-नहीं,नयी गोईं लेकर क्या करोगे? इसे लेते जाओ।'
'तो मैं तुम्हारे रुपए भिजवा दूंगा।'