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पृष्ठ:गो-दान.djvu/२२

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२० गोदान

राय साहब झल्लाते हुए चले गये। होरी ने मन में सोचा,अभी यह कैसी-कैसी नीति और धरम की बातें कर रहे थे और एकाएक इतने गरम हो गये!


सूर्य सिर पर आ गया था। उसके तेज से अभिभूत होकर वृक्षों ने अपना पसार समेट लिया था। आकाश पर मटियाला गर्द छाया हुआ था और सामने की पृथ्वी काँपती हुई जान पड़ती थी।

होरी ने अपना डण्डा उठाया और घर चला। शगून के रुपये कहाँ से आयेंगे, यही चिन्ता उसके सिर पर सवार थी।


{Gap}}होरी अपने गांव के समीप पहुंचा,तो देखा, अभी तक गोबर खेत में ऊख गोड़ रहा है और दोनों लड़कियाँ भी उसके साथ काम कर रही हैं। लू चल रही थी,वगूले उठ रहे थे, भूतल धधक रहा था। जैसे प्रकृति ने वायु में आग घोल दिया हो। यह सब अभी तक खेत में क्यों है? क्या काम के पीछे सब जान देने पर तुले हुए है? वह खेत की ओर चला और दूर ही से चिल्लाकर वोला-आता क्यों नहीं गोवर, क्या काम ही करता रहेगा? दोपहर ढल गया,कुछ सूझता है कि नहीं?

उसे देखते ही तीनों ने कुदालें उठा ली और उसके साथ हो लिये। गोबर सांवला,लम्बा,एकहरा युवक था, जिसे इस काम से रुचि न मालम होती थी। प्रसन्नता की जगह मुख पर असंतोप और विद्रोह था। वह इसलिए काम में लगा हुआ था कि वह दिग्वाना चाहता था, उसे खाने-पीने की कोई फिक्र नहीं है। बड़ी लड़की सोना लज्जाशील कुमारी थी, साँवली, मुडौल, प्रसन्न और चपल। गाढ़े की लाल साड़ी जिसे वह घुटनों से मोड़कर कमर में बाँधे हुए थी, उसके हलके शरीर पर कुछ लदी हुई सी थी,और उसे प्रौढ़ता की गरिमा दे रही थी। छोटी रूपा पाँच-छ:साल की छोकरी थी मैली,सिर पर वालों का एक घोंसला-सा बना हुआ, एक लॅगोटी कमर में वाँधे,बहुत ही ढीठ और रोनी।

रूपा ने होरी की टाँगों में लिपटकर कहा--काका! देखो, मैने एक ढेला भी नहीं छोड़ा। बहन कहती है, जा पेड़ तले बैठ। ढेले न तोड़े जायेंगे काका,तो मिट्टी कैसे वरावर होगी।

होरी ने उसे गोद में उठाकर प्यार करते हुए कहा-तूने बहुत अच्छा किया बेटी, चल घर चलें। कुछ देर अपने विद्रोह को दबाये रहने के बाद गोबर बोला--यह तुम रोज़-रोज़ मालिकों की खुशामद करने क्यों जाते हो? बाकी न चुके तो प्यादा आकर गालियाँ सुनाता है,बेगार देनी ही पड़ती है,नजर-नज़राना सब तो हमसे भराया जाता है। फिर किसी की क्यों सलामी करो!

इस समय यही भाव होरी के मन में भी आ रहे थे; लेकिन लड़के के इस विद्रोहभाव को दबाना ज़रूरी था। बोला--सलामी करने न जायँ, तो रहें कहाँ। भगवान ने जब गुलाम बना दिया है,तो अपना क्या बस है। यह इसी सलामी की बरकत है