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पृष्ठ:गो-दान.djvu/२२२

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गो-दान
 

'तो होरी काम नहीं करेंगे?'

'ना!'

'तो हमारे रुपए सूद समेत दे दो। तीन साल का सूद होता है सौ रुपया। असल मिलाकर दो सौ होते हैं। हमने समझा था,तीन रुपये महीने सूद में कटते जायँगे;लेकिन तुम्हारी इच्छा नहीं है,तो मत करो। मेरे रुपए दे दो। धन्ना सेठ बनते हो,तो धन्ना सेठ का काम करो।

होरी ने दातादीन से कहा-तुम्हारी चाकरी से मैं कब इनकार करता हूँ महाराज? लेकिन हमारी ऊख भी तो बोने को पड़ी है।

गोबर ने बाप को डाँटा-कैसी चाकरी और किसकी चाकरी? यहाँ कोई किसी का चाकर नहीं। सभी बराबर हैं। अच्छी दिल्लगी है। किसी को सौ रुपए उधार दे दिये और उससे सूद में जिन्दगी भर काम लेते रहे। मूल ज्यों का त्यों! यह महाजनी नहीं है,खून चूसना है।

'तो रुपये दे दो भैया,लड़ाई काहे की। मैं आने रुपये ब्याज लेता हूँ। तुम्हें गाँवघर का समझकर आध आने रुपए पर दिया था।'

'हम तो एक रुपया सैकड़ा देंगे। एक कौड़ी बेसी नहीं। तुम्हें लेना हो तो लो,नहीं अदालत से लेना। एक रुपया सैकड़े व्याज कम नहीं होता।'

'मालूम होता है,रुपए की गर्मी हो गयी है।'

('गर्मी उन्हें होती है,जो एक के दस लेते हैं। हम तो मजूर हैं। हमारी गर्मी पसीने के रास्ते बह जाती है। मुझे याद है,तुमने बैल के लिए तीस रुपए दिये थे। उसके सौ हुए। और अब सौ के दो सौ हो गये। इसी तरह तुम लोगों ने किसानों को लूट-लूटकर मजूर बना डाला और आप उनकी जमीन के मालिक बन बैठे। तीस के दो सौ! कुछ हद है। कितने दिन हुए होंगे दादा?'

होरी ने कातर कंठ से कहा-यही आठ-नौ साल हुए होंगे।

गोबर ने छाती पर हाथ रखकर कहा-नौ साल में तीस रुपए के दो सौ! एक रुपए के हिसाब से कितना होता है?

उसने ज़मीन पर एक ठीकरे से हिसाब लगाकर कहा-दस साल में छत्तीस रुपए होते हैं। असल मिलाकर छाछठ। उसके सत्तर रुपए ले लो। इससे बेसी मैं एक कौड़ी न दूंगा।

दातादीन ने होरी को बीच में डालकर कहा-सुनते हो होरी गोबर का फैसला? मैं अपने दो सौ छोड़ के सत्तर रुपए ले लूं,नहीं अदालत करूँ। इस तरह का व्यवहार हुआ तो कै दिन संसार चलेगा? और तुम बैठ सुन रहे हो;मगर यह समझ लो,मैं ब्राह्मण हूँ,मेरे रुपए हज़म करके तुम चैन न पाओगे। मैंने ये सत्तर रुपए भी छोड़े,अदालत भी न जाऊँगा,जाओ। अगर मैं ब्राह्मण हूँ,तो अपने पूरे दो सौ रुपए लेकर दिखा दूंगा! और तुम मेरे द्वार पर आवोगे और हाथ बाँधकर दोगे।

दातादीन झल्लाये हुए लौट पड़े। गोबर अपनी जगह बैठा रहा। मगर होरी के