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२३४ गो-दान

'राजा साहब को तो आप जानते ही हैं, झक्कड़ आदमी हैं, पूरे सनकी। कोई न कोई धुन उन पर सवार रहती है। आजकल यही धुन है कि राय साहब को नीचा दिखाकर रहेंगे। और उन्हें जब एक धुन सवार हो जाती है, तो फिर किसी की नहीं सुनते, चाहे कितना ही नुकसान उठाना पड़े। कोई चालीस लाख का बोझ सिर पर है, फिर भी वही दम-खम है, वही अलल्ले-तलल्ले खर्च हैं। पैसे को तो कुछ समझते ही नहीं। नौकरों का वेतन छ:-छ: महीने से बाक़ी पड़ा हुआ है। मगर हीरा-महल बन रहा है। संगमरमर का तो फर्श है। पच्चीकारी ऐसी हो रही है कि आँखें नहीं ठहरतीं। अफसरों के पास रोज डालियाँ जाती रहती हैं। सुना है, कोई अंग्रेज़ मैनेजर रखने वाले हैं।'

'फिर आपने कैसे कह दिया था कि आप कोई समझौता करा देंगे।'

'मुझसे जो कुछ हो सकता था वह मैंने किया। इसके सिवा मैं और क्या कर सकता था। अगर कोई व्यक्ति अपने दो-चार लाख रुपए फूंकने ही पर तुला हुआ हो, तो मेरा क्या बस!'

राय साहब अब क्रोध न सँभाल सके––खासकर जब उन दो-चार लाख रुपए में से दस-बीस हजार आपके हत्थे चढ़ने की भी आशा हो।

मिस्टर तंखा क्यों दबते। बोले––राय साहब, अब साफ़-साफ़ न कहलवाइए। यहाँ न मैं संन्यासी हूँ, न आप। हम सभी कुछ न कुछ कमाने ही निकले हैं। आँख के अन्धों और गाँठ के पूरों की तलाश आपको भी उतनी ही है, जितनी मुझको। आपसे मैंने खड़े होने का प्रस्ताव किया। आप एक लाख के लोभ से खड़े हो गये; अगर गोटी लाल हो जाती, तो आज आप एक लाख के स्वामी होते और बिना एक पाई कर्ज लिये कुँवर साहब से सम्बन्ध भी हो जाता और मुक़दमा भी दायर हो जाता; मगर आपके दुर्भाग्य से वह चाल पट पड़ गयी। जब आप ही ठाठ पर रह गये, तो मुझे क्या मिलता। आखिर मैंने झक मारकर उनकी पूंछ पकड़ी। किसी न किसी तरह यह वैतरणी तो पार करनी ही है।

राय साहब को ऐसा आवेश आ रहा था कि इस दुष्ट को गोली मार दें। इसी बदमाश ने सब्ज बाग दिखाकर उन्हें खड़ा किया और अब अपनी सफाई दे रहा है, पीठ में धूल भी नहीं लगने देता, लेकिन परिस्थिति ज़बान बन्द किये हुए थी।

'तो अब आपके किये कुछ नहीं हो सकता?'

'ऐसा ही समझिए।'

'मैं पचास हजार पर भी समझौता करने को तैयार हूँ।'

'राजा साहब किसी तरह न मानेंगे।'

'पच्चीस हज़ार पर तो मान जायँगे?'

'कोई आशा नहीं। वह साफ़ कह चुके हैं।'

'वह कह चुके हैं या आप कह रहे हैं?'

'आप मुझे झूठा समझते हैं?'