का भी स्थान न था। क्या वह उससे यह कहने का साहस रखते हैं कि मैंने अब तक तुम्हारे ऊपर हज़ारों रुपए लुटा दिये, क्या उसका यही पुरस्कार है? लज्जा से उनका मुँह छोटा-सा निकल आया,जैसे सिकुड़ गया हो! झेंपते हुए बोले-मेरा आशय यह न था मालती,तुम बिलकुल ग़लत समझीं।
मालती ने परिहास के स्वर में कहा-खुदा करे,मैंने ग़लत समझा हो,क्योंकि अगर मैं उसे सच समझ लूंगी,तो तुम्हारे साये से भी भागेंगी। मैं रूपवती हूँ। तुम भी मेरे अनेक चाहनेवालों में से एक हो। वह मेरी कृपा थी कि जहाँ मैं औरों के उपहार लौटा देती थी,तुम्हारी सामान्य-से-सामान्य चीजें भी धन्यवाद के साथ स्वीकार कर लेती थी,और जरूरत पड़ने पर तुमसे रुपए भी माँग लेती थी,अगर तुमने अपने धनोन्माद में इसका कोई दूसरा अर्थ निकाल लिया,तो मैं तुम्हें क्षमा करूँगी। यह पुरुष-प्रकृति का अपवाद नहीं;मगर यह समझ लो कि धन ने आज तक किसी नारी के हृदय पर विजय नहीं पायी,और न कभी पायेगा।
खन्ना एक-एक शब्द पर मानो गज़-गज़ भर नीचे धंसते जाते थे। अब और ज्यादा चोट सहने का उनमें जीवट न था। लज्जित होकर बोले--मालती,तुम्हारे पैरों पड़ता हूँ, अव और जलील न करो। और न सही तो मित्र-भाव तो बना रहने दो।
यह कहते हुए उन्होंने दराज़ से चेकबुक निकाला और एक हजार लिखकर डरतेडरते मालती की तरफ बढ़ाया।
मालती ने चेक लेकर निर्दय व्यंग किया-यह मेरे व्यवहार का मूल्य है या व्यायामशाला का चन्दा?
खन्ना सजल आँखों से बोले--अब मेरी जान बख्शो मालती, क्यों मेरे मुंह में कालिख पोत रही हो।
मालती ने ज़ोर से कहक़हा मारा-देखो,डाँट भी बताई और एक हजार रुपए भी वसूल किये। अब तो तुम कभी ऐसी शरारत न करोगे?
'कभी नहीं,जीते जी कभी नहीं।'
‘कान पकड़ो।'
'कान पकड़ता हूँ;मगर अब तुम दया करके जाओ और मुझे एकान्त में बैठकर सोचने और रोने दो। तुमने आज मेरे जीवन का सारा आनन्द....।'
मालती और ज़ोर से हँसी-देखो खन्ना,तुम मेरा बहुत अपमान कर रहे हो और तुम जानते हो,रूप अपमान नहीं सह सकता।) मैंने तो तुम्हारे साथ भलाई की और तुम उसे बुराई समझते हो।
खन्ना विद्रोह भरी आँखों से देखकर बोले-तुमने मेरे साथ भलाई की है या उलटी छूरी से मेरा गला रेता है?
'क्यों,मैं तुम्हें लूट-लूटकर अपना घर भर रही थी। तुम उस लूट से बच गये।'
'क्यों घाव पर नमक छिड़क रही हो मालती! मैं भी आदमी हूँ।'