पृष्ठ:गो-दान.djvu/२५५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
गो-दान २५५

'नहीं जाती।'

तुरत दोनों भाइयों ने उसके हाथ पकड़ लिये और उसे घसीटते हुए ले चले। सिलिया ज़मीन पर बैठ गयी। भाइयों ने इस पर भी न छोड़ा। घसीटते ही रहे। उसकी साड़ी फट गयी, पीठ और कमर की खाल छिल गयी; पर वह जाने पर राजी न हुई।

तब हरखू ने लड़कों से कहा––अच्छा, अब इसे छोड़ दो। समझ लेंगे मर गयी; मगर अब जो कभी मेरे द्वार पर आयी तो लहू पी जाऊँगा।

सिलिया जान पर खेलकर बोली––हाँ,जब तुम्हारे द्वार पर जाऊँ,तो पी लेना।

बुढ़िया ने क्रोध के उन्माद में सिलिया को कई लातें जमाईं और हरखू ने उसे हटा न दिया होता, तो शायद प्राण ही लेकर छोड़ती।

बुढ़िया फिर झपटी, तो हरखू ने उसे धक्के देकर पीछे हटाते हुए कहा––तू बड़ी हत्यारिन है कलिया! क्या उसे मार ही डालेगी?

सिलिया बाप के पैरों से लिपटकर बोली––मार डालो दादा, सब जने मिलकर मार डालो। हाय अम्माँ, तुम इतनी निर्दयी हो; इसीलिए दूध पिलाकर पाला था? सौर में ही क्यों न गला घोंट दिया? हाय! मेरे पीछे पण्डित को भी तुमने भिरस्ट कर दिया। उसका धरम लेकर तुम्हें क्या मिला? अब तो वह भी मुझे न पूछेगा। लेकिन पूछे न पूछे, रहूँगी तो उसी के साथ। वह मुझे चाहे भूखों रखे, चाहे मार डाले,पर उसका साथ न छोड़ेंगी। उनकी साँसत कराके छोड़ दूँ? मर जाऊँगी, पर हरजाई न बनूंगी। एक बार जिसने बाँह पकड़ ली, उसी की रहूँगी।

कलिया ने ओठ चबाकर कहा––जाने दो रॉड़ को। समझती है, वह इसका निवाह करेगा; मगर आज ही मारकर भगा न दे तो मुंह न दिखाऊँ।

भाइयों को भी दया आ गयी। सिलिया को वहीं छोड़कर सब-के-सब चले गये। तब वह धीरे से उठकर लॅगड़ाती, कराहती, खलिहान में आकर बैठ गयी और अंचल में मुंह ढाँपकर रोने लगी।

दातादीन ने जुलाहे का गुस्सा डाढ़ी पर उतारा––उनके साथ चली क्यों नहीं गयी री सिलिया! अब क्या करवाने पर लगी हुई है? मेरा सत्यानास कराके भी पेट नहीं भरा?

सिलिया ने आँसू-भरी आँखें ऊपर उठाईं। उनमें तेज की झलक थी।

'उनके साथ क्यों जाऊँ? जिसने बाँह पकड़ी है, उसके साथ रहूँगी।'

पण्डितजी ने धमकी दी––मेरे घर में पाँव रखा, तो लातों से बात करूँगा।

सिलिया ने भी उद्दण्डता से कहा––मुझे जहाँ वह रखेंगे, वहाँ रहूँगी। पेड़ तले रखें, चाहे महल में रखें।

मातादीन संज्ञाहीन-सा बैठा था। दोपहर होने आ रहा था। धूप पत्तियों से छन-छनकर उसके चेहरे पर पड़ रही थी। माथे से पसीना टपक रहा था। पर वह मौन, निस्पन्द बैठा हुआ था।

सहसा जैसे उसने होश में आकर कहा––मेरे लिए अब क्या कहते हो दादा?