२५६ | गो-दान |
दातादीन ने उसके सिर पर हाथ रखकर ढाढ़स देते हुए कहा––तुम्हारे लिए अभी मैं क्या कहूँ बेटा? चलकर नहाओ, खाओ, फिर पण्डितों की जैसी व्यवस्था होगी, वैसा किया जायगा। हाँ, एक बात है; सिलिया को त्यागना पड़ेगा।
मातादीन ने सिलिया की ओर रक्त-भरे नेत्रों से देखा––मैं अब उसका कभी मुंह न देखूगा; लेकिन परासचित हो जाने पर फिर तो कोई दोष न रहेगा।
'परासचित हो जाने पर कोई दोष-पाप नहीं रहता।'
'तो आज ही पण्डितों के पास जाओ।'
'आज ही जाऊँगा बेटा!'
'लेकिन पण्डित लोग कहें कि इसका परासचित नहीं हो सकता, तब?'
'उनकी जैसी इच्छा।'
'तो तुम मुझे घर से निकाल दोगे?'
दातादीन ने पुत्र-स्नेह से विह्वल होकर कहा––ऐसा कहीं हो सकता है, बेटा! धन जाय, धरम जाय, लोक-मरजाद जाय, पर तुम्हें नहीं छोड़ सकता।
मातादीन ने लकड़ी उठाई और बाप के पीछे-पीछे घर चला। सिलिया भी उठी और लॅगड़ाती हुई उसके पीछे हो ली।
मातादीन ने पीछे फिरकर निर्मम स्वर से कहा––मेरे साथ मत आ। मेरा तुझसे कोई वास्ता नहीं। इतनी साँसत करवा के भी तेरा पेट नहीं भरता।
सिलिया ने धृष्टता के साथ उसका हाथ पकड़कर कहा––वास्ता कैसे नहीं है? इसी गाँव में तुमसे धनी, तुमसे सुन्दर, तुमसे इज्जतदार लोग हैं। मैं उनका हाथ क्यों नहीं पकड़ती। तुम्हारी यह दुर्दसा ही आज क्यों हुई? जो रस्सी तुम्हारे गले में पड़ गयी है, उसे तुम लाख चाहो, नहीं छोड़ सकते। और न मैं तुम्हें छोड़कर कहीं जाऊँगी। मजूरी करूंगी, भीख माँगूंगी; लेकिन तुम्हें न छोड़ेंगी।
यह कहते हुए उसने मातादीन का हाथ छोड़ दिया और फिर खलिहान में जाकर अनाज ओसाने लगी। होरी अभी तक वहाँ अनाज माँड़ रहा था। धनिया उसे भोजन करने के लिए बुलाने आयी थी। होरी ने बैलों को पैरे से बाहर निकालकर एक पेड़ में बाँध दिया और सिलिया से बोला––तू भी जा खा-पी आ सिलिया! धनिया यहाँ बैठी है। तेरी पीठ पर की साड़ी तो लहू से रँग गयी है रे! कहीं घाव पक न जाय। तेरे घरवाले बड़े निर्दयी हैं।
सिलिया ने उसकी ओर करुण नेत्रों से देखा––यहाँ निर्दयी कौन नहीं है, दादा! मैंने तो किसी को दयावान् नहीं पाया।
'क्या कहा पंडित ने?'
'कहते हैं, मेरा तुमसे कोई वास्ता नहीं।'
'अच्छा! ऐसा कहते हैं!'
'समझते होंगे, इस तरह अपने मुंँह की लाली रख लेंगे; लेकिन जिस बात को दुनिया जानती है, उसे कैसे छिपा लेंगे। मेरी रोटियाँ भारी हैं, न दें। मेरे लिए क्या? मजूरी