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२५८ गो-दान

भी खूब लगी हुई थी। विवाह के लिए गल्ला तो मौजूद था; दो सौ रुपए भी हाथ आ जायें, तो कन्या-ऋण से उसका उद्धार हो जाय। अगर गोबर सौ रुपए की मदद कर दे, तो बाक़ी सौ रुपए होरी को आसानी से मिल जायेंगे। झिंगुरीसिंह और मँगरू साह दोनों ही अब कुछ नर्म पड़ गये थे। जब गोबर परदेश में कमा रहा है, तो उनके रुपए मारे न पड़ सकते थे।

एक दिन होरी ने गोबर के पास दो-तीन दिन के लिए जाने का प्रस्ताव किया।

मगर धनिया अभी तक गोबर के वह कठोर शब्द न भूली थी। वह गोबर से एक पैसा भी न लेना चाहती थी, किसी तरह नहीं!

होरी ने झुंझलाकर कहा––लेकिन काम कैसे चलेगा, यह बता।

धनिया सिर हिलाकर बोली––मान लो, गोबर परदेश न गया होता, तब तुम क्या करते? वही अब करो।

होरी की जबान बन्द हो गयी। एक क्षण बाद बोला––मैं तो तुझसे पूछता हूँ।

धनिया ने जान बचाई––यह सोचना मरदों का काम है।

होरी के पास जवाब तैयार था––मान ले, मैं न होता, तू ही अकेली रहती, तब तू क्या करती। वह कर।

धनिया ने तिरस्कार भरी आँखो से देखा––तब मैं कुश-कन्या भी दे देती तो कोई हँसनेवाला न था।

कुश-कन्या होरी भी दे सकता था। इसी में उसका मंगल भी था; लेकिन कुलमर्यादा कैसे छोड़ दे? उसकी बहनों के विवाह में तीन-तीन सौ बराती द्वार पर आये थे। दहेज भी अच्छा ही दिया गया था। नाच-तमाशा, बाजा, गाजा, हाथी-घोड़े, सभी आये थे। आज भी विरादरी में उसका नाम है। दस गाँव के आदमियों से उसका हेल-मेल है। कुश-कन्या देकर वह किसे मुंह दिखायेगा? इससे तो मर जाना अच्छा है। और वह क्यों कुश-कन्या दे? पेड़-पालों हैं, जमीन है और थोड़ी-सी साख भी है; अगर वह एक बीघा भी बेंच दे, तो सौ मिल जायँ; लेकिन किसान के लिए जमीन जान से भी प्यारी है, कुल-मर्यादा से भी प्यारी है। और कुल तीन ही वीघे तो उसके पास हैं; अगर एक बीघा बेंच दे, तो फिर खेती कैसे करेगा?

कई दिन इसी हैस-बैस में गुजरे। होरी कुछ फैसला न कर सका।

दशहरे की छुट्टियों के दिन थे। झिंगुरी,पंटश्वरी और नोखेराम तीनों ही सज्जनों के लड़के छुट्टियों में घर आये थे। तीनों अंग्रेजी पढ़ते थे और यद्यपि तीनों बीस-बीस साल के हो गये थे, पर अभी तक यूनिवर्सिटी में जाने का नाम न लेते थे। एक-एक क्लास में दो-दो, तीन-तीन साल पड़े रहते। तीनों की शादियाँ हो चुकी थीं। पटेश्वरी के सपूत विन्देसरी तो एक पुत्र के पिता भी हो चुके थे। तीनों दिन भर ताश खेलते, भंग पीते और छैला बने घूमते। वे दिन में कई-कई बार होरी के द्वार की ओर ताकते हुए निकलते और कुछ ऐसा संयोग था कि जिस वक्त वे निकलते, उसी वक्त सोना भी किसी-न-किसी काम से द्वार पर आ खड़ी होती। इन दिनों वह वही साड़ी पहनती थी, जो