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गो-दान
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बहुत पढ़ी थीं। बड़े-बड़े वकीलों,बैरिस्टरों की जूतियाँ सीधी की थीं;पर इस मूर्ख नोहरी के हाथ का खिलौना बने हुए थे। भौंहें सिकोड़कर बोली--समय का फेर है,यहाँ आ गयी;लेकिन अपनी आवरू न गवाऊँगी।

ब्राह्मण सतेज हो उठा। मूंँछे खड़ी करके बोला--तेरी ओर जो ताके उसकी आँखें निकाल लूंँ।

नोहरी ने लोहे को लाल करके घन जमाया--लाला पटेसरी जब देखो मुझसे बेबात की बात किया करते हैं। मैं हरजाई थोड़े ही हूँ कि कोई मुझे पैसे दिखाये। गांव-भर में सभी औरतें तो हैं,कोई उनसे नहीं बोलता। जिसे देखो,मुझी को छेड़ता है।

नोखेराम के सिर पर भूत सवार हो गया। अपना मोटा डंडा उठाया और आँधी की तरह हरहराते हुए बाग में पहुँचकर लगे ललकारने--आ जा वड़ा मर्द है तो। मूंँछे उखाड़ लूंँगा, खोदकर गाड़ दूंँगा। निकल आ सामने। अगर फिर कभी नोहरी को छेड़ा तो खून पी जाऊँगा। सारी पटवारगिरी निकाल दूंँगा। जैसा खुद है,वैसा ही दूसरों को समझता है। तू है किस घमंड में?

लाला पटेश्वरी सिर झुकाये,दम साधे जड़वत् खड़े थे। ज़रा भी ज़बान खोली और शामत आयी। उनका इतना अपमान जीवन में कभी न हुआ था। एक बार लोगों ने उन्हें ताल के किनारे रात को घेरकर खूब पीटा था;लेकिन गाँव में उमकी किसी को खवर न हुई थी। किसी के पास कोई प्रमाण न था; लेकिन आज तो सारे गाँव के सामने उनकी इज्जत उतर गयी। कल जो औरत गाँव में आश्रय माँगती आयी थी,आज सारे गाँव पर उसका आतंक था। अब किसकी हिम्मत है जो उसे छेड़ मके। जब पटेश्वरी कुछ नहीं कर सके,तो दूसरों की बिसात ही क्या!

अब नोहरी गाँव की रानी थी। उसे आते देखकर किसान लोग उसके रास्ते से हट जाते थे। यह खुला हुआ रहस्य था कि उसकी थोड़ी-सी पूजा करके नोग्वेराम से बहुत काम निकल सकता है। किसी को बटबारा कराना हो,लगान के लिए मुहलत मांँगनी हो,मकान बनाने के लिए ज़मीन की ज़रूरत हो, नोहरी की पूजा किये बगैर उसका काम सिद्ध नहीं हो सकता। कभी-कभी यह अच्छे-अच्छे असामियों को डाँट देती थी। असामी ही नहीं,अब कारकुन साहब पर भी रोब जमाने लगी थी।

भोला उसके आश्रित बनकर न रहना चाहते थे। औरत की कमाई खाने से ज्यादा अधम उनकी दृष्टि में दूसरा काम न था। उन्हें कुल तीन रुपये माहवार मिलते थे,यह भी उनके हाथ न लगते। नोहरी ऊपर ही ऊपर उड़ा लेती। उन्हें तमाखू पीने को घेला मयस्सर नहीं,और नोहरी दो आने रोज़ के पान खा जाती थी। जिसे देखो,वही उन पर रोब जमाता था। प्यादे उससे चिलम भरवाते,लकड़ी कटवाते;बेचारा दिन-भर का हारा-थका आता और द्वार पर पेड़ के नीचे झिंलगे खाट पर पड़ा रहता। कोई एक लुटिया पानी देनेवाला भी नहीं। दोपहर की बासी रोटियाँ रात को खानी पड़तीं और वह भी नमक या पानी और नमक के साथ।