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२७६ गोदान
रही है। दोनों की आँखों में विस्मय था, कृतज्ञता थी, सन्देह था और लज्जा थी। नोहरी उतनी बुरी नहीं है, जितना लोग समझते हैं।

नोहरी ने फिर कहा--तुम्हारी और हमारी इज्जत एक है। तुम्हारी हँसी हो तो क्या मेरी हँसी न होगी ? कैसे भी हुआ हो, पर अब तो तुम हमारे समधी हो।

होरी ने सकुचाते हुए कहा--तुम्हारे रुपए तो घर में ही हैं, जब काम पड़ेगा ले लेंगे। आदमी अपनों ही का भरोसा तो करता है; मगर ऊपर से इन्तजाम हो जाय, तो घर के रुपए क्यों छुए।

धनिया ने अनुमोदन किया--हाँ, और क्या।

नोहरी ने अपनापन जताया--जब घर में रुपए हैं, तो बाहरवालों के सामने हाथ क्यों फैलाओ। सूद भी देना पड़ेगा, उस पर इस्टाम लिखो, गवाही कराओ, दस्तूरी दो. खुसामद करो। हाँ, मेरे रुपए में छूत लगी हो, तो दूसरी बात है।

होरी ने संँभाला--नहीं, नहीं नोहरी, जब घर में काम चल जायगा, तो बाहर क्यों हाथ फैलायेंगे; लेकिन आपसवाली बात है। खेती-बारी का भरोसा नहीं। तुम्हें जल्दी कोई काम पड़ा और हम रुपए न जुटा सके, तो तुम्हें भी बुरा लगेगा और हमारी जान भी संकट में पड़ेगी। इससे कहता था। नहीं, लड़की तो तुम्हारी है।

'मुझे अभी रुपए की ऐसी जल्दी नहीं है।'

'तो तुम्हीं से लेंगे। कन्यादान का फल भी क्यों बाहर जाय।'

'कितने रुपाए चाहिए ?'

'तुम कितने दे सकोगी ?'

'सौ में काम चल जायगा ?'

होरी को लालच आया। भगवान ने छप्पर फाड़कर रुपए दिये हैं, तो जितना ले सके, उतना क्यों न ले !

'सौ में भी चल जायगा। पाँच सौ में भी चल जायगा। जैसा हौसला हो।'

'मेरे पास कुल दो सौ रुपए हैं, वह मैं दे दूंँगी।'

'तो इतने में बड़ी खुसफेली से काम चल जायगा। अनाज घर में है; मगर ठकुराइन, आज तुमसे कहता हूँ, मैं तुम्हें ऐसी लच्छमी न समझता था। इस ज़माने में कौन किसकी मदद करता है, और किसके पास है। तुमने मुझे डूबते से बचा लिया।'

दिया-बत्ती का समय आ गया था। ठंडक पड़ने लगी थी। जमीन ने नीली चादर ओढ़ ली थी। धनिया अन्दर जाकर अँगीठी लायी। सब तापने लगे। पुआल के प्रकाश में छबीली, रंगीली, कुलटा नोहरी उनके सामने वरदान-सी बैठी थी। इस समय उसकी उन आँखों में कितनी सहृदयता थी; कपोलों पर कितनी लज्जा, ओठों पर कितनी सत्प्रेरणा !

कुछ देर तक इधर-उधर की बातें करके नोहरी उठ खड़ी हुई और यह कहती हुई घर चली--अब देर हो रही है। कल तुम आकर रुपए ले लेना महतो !

'चलो, मैं तुम्हें पहुँचा दूंँ।'