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गोदान २८१


अकड़ता हुआ, मूंँछों पर ताव देता हुआ फाँसी के तख्ते पर जाऊँ, तो सही। औरत की जात ! कितनी बेवफा होती है। खिचड़ी डाल दी और टाँग पसारकर सो रही। कोई खाय या न खाय, उसकी बला से। आप मजे से फलके उड़ाती है, मेरे लिए खिचड़ी! सता ले जितना सताते बने; तुझे भगवान सतायेंगे जो न्याय करते हैं।

उसने झुनिया को जगाया नहीं। कुछ बोला भी नहीं। चुपके से खिचड़ी थाली में निकाली और दो-चार कौर निगलकर बरामदे में लेट रहा। पिछले पहर उसे सर्दी लगी। कोठरी में कम्बल लेने गया तो झुनिया के कराहने की आवाज सुनी। नशा उतर चुका था। पूछा--कैसा जी है झुनिया ! कहीं दरद है क्या?

'हाँ, पेट में ज़ोर से दरद हो रहा है।'

'तूने पहले क्यों नहीं कहा। अब इस बखत कहाँ जाऊँ ?'

'किससे कहती?'

'मैं क्या मर गया था?'

'तुम्हें मेरे मरने-जीने की क्या चिन्ता ?'

गोबर घबराया, कहाँ दाई खोजने जाय? इस वक्त वह आने ही क्यों लगी। घर में कुछ है भी तो नहीं, चुडै़ल ने पहले बता दिया होता तो किसी से दो-चार रुपए माँग लाता। इन्हीं हाथों में सौ-पचास रुपए हरदम पड़े रहते थे, चार आदमी खुशामद करते थे। इम कुलच्छनी के आते ही जैसे लक्ष्मी रूठ गयी। टके-टके को मुहताज हो गया।

सहसा किसी ने पुकारा--यह क्या तुम्हारी घरवाली कराह रही है? दरद तो नहीं हो रहा है?

यह वही मोटी औरत थी जिससे आज झुनिया की बातचीत हुई थी, घोड़े को दाना खिलाने उठी थी। झुनिया का कराहना सुनकर पूछने आ गयी थी।

गोबर ने बरामदे में जाकर कहा--पेट में दर्द है। छटपटा रही है। यहाँ कोई दाई मिलेगी?

'वह तो मैं आज उसे देखकर ही समझ गयी थी। दाई कच्ची सराय में रहती है। लपककर बुला लाओ। कहना, जल्दी चल। तब तक मैं यहीं बैठी हूँ।'

'मैंने तो कच्ची सराय नहीं देखी, किधर है ?'

'अच्छा तुम उसे पंखा झलते रहो, मैं बुलाये लाती हूँ। यही कहते हैं, अनाड़ी आदमी किसी काम का नहीं। पूरा पेट और दाई की खबर नहीं।'

यह कहती हुई वह चल दी। इसके मुंँह पर तो लोग इसे चुहिया कहते हैं, यही इसका नाम था; लेकिन पीठ पीछे मोटल्ली कहा करते थे। किसी को मोटल्ली कहते सुन लेती थी, तो उसके सात पुरखों तक चढ़ जाती थी।

गोबर को बैठे दस मिनट भी न हुए होंगे कि वह लौट आयी और बोली--अब संसार में गरीबों का कैसे निवाह होगा! रॉड़ कहती है, पाँच रुपए लूंँगी--तब चलूँगी। और आठ आने रोज। बारहवें दिन एक साड़ी। मैंने कहा तेरा मुंँह झुलस दूंँ। तू जा चूल्हे में ! मैं देख लूंँगी। बारह बच्चों की माँ यों ही नहीं हो गयी हूँ। तुम बाहर आ