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२९० गोदान

और मिर्जा़ खुर्शद की है। यही लोग उन बेचारों को कठपुतली की तरह नचा रहे हैं, केवल थोड़े-से पैसे और यश के लोभ में पड़कर। यह नहीं सोचते कि उनकी दिल्लगी से कितने घर तबाह हो जायँगे। ओंकारनाथ का पत्र नहीं चलता तो बेचारे खन्ना क्या करें। और आज उनके पत्र के एक लाख ग्राहक हो जायँ, और उससे उन्हें पाँच लाख का लाभ होने लगे, तो क्या वह केवल अपने गुज़ारे भर को लेकर शेष कार्यकर्ताओं में बाँट देंगे ? कहाँ की बात ! और वह त्यागी मिर्जा़ खुर्शद भी तो एक दिन लखपती थे। हज़ारों मजूर उनके नौकर थे। तो क्या वह अपने गुजारे-भर को लेकर सब कुछ मजूरों को बाँट देते थे। वह उसी गुजारे की रकम में युरोपियन छोकरियों के साथ बिहार करते थे। बड़े-बड़े अफ़सरों के साथ दावतें उड़ाते थे, हजारों रुपए महीने की शराब पी जाते थे और हर-साल फ्रांस और स्वीटज़रलैण्ड की सैर करते थे। आज मजूरों की दशा पर उनका कलेजा फटता है !

इन दोनों नेताओं की तो खन्ना को परवाह न थी। उनकी नीयत की सफ़ाई में पूरा सन्देह था। न रायसाहब की ही उन्हें परवाह थी, जो हमेशा खन्ना की हाँ-में-हाँ मिलाया करते थे और उनके हराएक काम का समर्थन कर दिया करते थे। अपने परिचितों में केवल एक ही ऐसा व्यक्ति था, जिसके निप्पक्ष विचार पर खन्ना जी को पूरा भरोसा था और वह डाक्टर मेहता थे। जब से उन्होंने मालती से घनिष्ठता बढ़ानी शुरू की थी, खन्ना की नजरों में उनकी इज्जत बहुत कम हो गयी थी। मालती बरसों खन्ना की हृदयेश्वरी रह चुकी थी; पर उमे उन्होंने सदैव खिलौना समझा था। इसमें सन्देह नहीं कि वह खिलौना उन्हें बहुत प्रिय था। उसके खो जाने, या टूट जाने, या छिन जाने पर वह खूब रोते, और वह रोये थे, लेकिन थी वह खिलौना ही। उन्हें कभी मालती पर विश्वास न हुआ। वह कभी उनके ऊपरी विलास-आवरण को छेदकर उनके अन्तःकरण तक न पहुंँच सकी थी। वह अगर खुद खन्ना से विवाह का प्रस्ताव करती, तो वह स्वीकार न करते। कोई बहाना करके टाल देते। अन्य कितने ही प्राणियों की भाँति खन्ना का जीवन भी दोहरा या दो-रुखी था। एक ओर वह त्याग और जन-सेवा और उपकार के भक्त थे, तो दूसरी ओर स्वार्थ और विलास और प्रभुता के। कौन उनका असली रुख था, यह कहना कठिन है। कदाचित् उनकी आत्मा का उत्तम आधा सेवा और सहृदयता से बना हआ था, मद्धिम आधा स्वार्थ और विलास से। पर उत्तम और मद्धिम में बराबर संघर्ष होता रहता था। और मद्धिम ही अपनी उद्दण्डता और हठ के कारण सौम्य और शान्त उत्तम पर ग़ालिब आता था। उनका मद्धिम मालती की ओर झुकना था, उत्तम मेहता की ओर; लेकिन वह उत्तम अब मद्धिम के साथ एक हो गया था। उनकी समझ में न आता था कि मेहता-जैसा आदर्शवादी व्यक्ति मालती-जैसी चंचल, विलासिनी रमणी पर कैसे आसक्त हो गया। वह बहुत प्रयास करने पर भी मेहता को वासनाओं का शिकार न स्थिर कर सकते थे और कभी-कभी उन्हें यह सन्देह भी होने लगता था कि मालती का कोई दूसरा रूप भी है, जिसे वह न देख सके या जिसे देखने की उनमें क्षमता न थी।