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पृष्ठ:गो-दान.djvu/२९२

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गोदान २९३

शक्कर-मिल की चिमनी यहाँ से साफ़ नज़र आती थी। खन्ना ने उसकी तरफ़ देखा। वह चिमनी खन्ना के कीर्तिस्तम्भ की भाँति आकाश में सिर उठाये खड़ी थी। खन्ना की आँखों में अभिमान चमक उठा। इसी वक्त उन्हें मिल के दफ्तर में जाना है। वहाँ डायरेक्टरों की एक अर्जेण्ट मीटिंग करनी होगी और इस परिस्थिति को उन्हें समझाना होगा और इस समस्या को हल करने का उपाय भी बतलाना होगा।

मगर चिमनी के पास यह धुआँ कहाँ से उठ रहा है। देखते-देखते सारा आकाश बैलून की भाँति धुएँ से भर गया। सबों ने सशंक होकर उधर देखा। कहीं आग तो नहीं लग गयी? आग ही मालूम होती है।

सहसा सामने सड़क पर हजारों आदमी मिल की तरफ़ दौड़े जाते नज़र आये। खन्ना ने खड़े होकर ज़ोर से पूछा--तुम लोग कहाँ दौड़े जा रहे हो?

एक आदमी ने रुककर कहा--अजी, शक्कर-मिल में आग लग गयी। आप देख नहीं रहे हैं ?

खन्ना ने मेहता की ओर देखा और मेहता ने खन्ना की ओर। मालती दौड़ी हुई बँगले में गयी और अपने जूते पहन आयी। अफ़सोस और शिकायत करने का अवसर न था। किसी के मुंँह से एक बात न निकली। खतरे में हमारी चेतना अन्तर्मुखी हो जाती है। खन्ना की कार खड़ी थी ही। तीनों आदमी घबड़ाये हुए आकर वैठे और मिल की तरफ़ भागे। चौरस्ते पर पहुंँचे, तो देखा, सारा शहर मिल की ओर उमड़ा चला आ रहा है। आग मे आदमियों को खींचने का जादू है। कार आगे न बढ़ सकी।

मेहता ने पूछा--आग-बीमा तो करा लिया था न ?

खन्ना ने लम्बी साँस खींचकर कहा--कहाँ भाई, अभी तो लिखा-पढ़ी हो रही थी। क्या जानता था, यह आफ़त आनेवाली है।

कार वहीं राम-आसरे छोड़ दी गयी और तीनों आदमी भीड़ चीरते हुए मिल के सामने जा पहुंँचे। देखा तो अग्नि का एक सागर आकाश में उमड़ रहा था। अग्नि की उन्मत्त लहरें एक-पर-एक, दाँत पीसती थीं, जीभ लपलपाती थीं जैसे आकाश को भी निगल जायँगी, उस अग्नि-समद्र के नीचे ऐसा धुआँ छाया था, मानो सावन की घटा कालिख में नहाकर नीचे उतर आयी हो। उसके ऊपर जैसे आग का थरथराता हुआ, उबलता हुआ हिमाचल खड़ा था। हाते में लाखों आदमियों की भीड़ थी, पुलिस भी थी, फ़ायर ब्रिगेड भी, सेवा-समितियों के सेवक भी; पर सब-के-सब आग की भीषणता से मानो शिथिल हो गये हों। फ़ायर ब्रिगेड के छींटे उस अग्नि-सागर में जाकर जैसे बुझ जाते थे। ईटें जल रही थीं, लोहे के गार्डर जल रहे थे और पिघली हुई शक्कर के परनाले चारों तरफ बह रहे थे। और तो और, ज़मीन से भी ज्वाला निकल रही थी।

दूर से मेहता और खन्ना को यह आश्चर्य हो रहा था कि इतने आदमी खड़े तमाशा क्यों देख रहे हैं, आग बुझाने में मदद क्यों नहीं करते; मगर अब इन्हें भी ज्ञात हुआ कि तमाशा देखने के सिवा और कुछ करना अपने वश से बाहर है। मिल की दीवारों से पचास गज के अन्दर जाना जान-जोखिम था। ईट और पत्थर के टुकड़े