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२९२ गोदान

सहसा मेहता ने पूछा--आपने अपनी देवीजी से भी इस विषय में राय ली ?

खन्ना ने सकुचाते हुए कहा--हाँ, पूछा था।

'उनकी क्या राय थी ?'

'वही जो आप की है।'

'मुझे यही आशा थी। और आप उस विदुपी को अयोग्य समझते हैं।'

उसी वक्त मालती आ पहुँची और खन्ना को देखकर बोली--अच्छा, आप विराज रहे हैं ? मैंने मेहताजी की आज दावत की है। सभी चीजें अपने हाथ से पकायी हैं। आपको भी नेवता देती हूँ। गोविन्दी देवी से आपका यह अपराध क्षमा करा दूँगी।

खन्ना को कुतहल हुआ। अब मालती अपने हाथों से खाना पकाने लगी है ? मालती, वही मालती, जो खुद कभी अपने जूते न पहनती थी, जो खुद कभी बिजली का बटन तक न दबाती थी, विलास और विनोद ही जिसका जीवन था।

मुस्कराकर कहा--अगर आपने पकाया है, तो ज़रूर खाऊँगा। मैं तो कभी सोच ही न सकता था कि आप पाक-कला में भी निपुण हैं।

मालती निःसंकोच भाव से बोली--इन्होंने मार-मारकर वैद्य बना दिया। इनका हुक्म कैसे टाल सकती। पुरुष देवता ठहरे।

खन्ना ने इस यंग का आनन्द लेकर मेहता की ओर आँखें मारते हुए कहा--- पुरुष तो आपके लिए इतने सम्मान की वस्तु न थी।

मालती झेंपी नहीं। इस संकोच का आशय समझकर जोश-भरे स्वर में बोली-- लेकिन अब हो गयी हूँ; इसलिए कि मैंने पुरुष का जो रूप अपने परिचितों की परिधि में देखा था, उससे यह कहीं सुन्दर हैं। पुरुष इतना सुन्दर, इतना कोमल हृदय . . .

मेहता ने मालती की ओर दीन-भाव से देखा और बोले--नहीं मालती, मुझ पर दया करो, नहीं मैं यहाँ से भाग जाऊँगा।

इन दिनों जो कोई मालती से मिलता, वह उससे मेहता की तारीफों के पुल बाँध देती, जैसे कोई नवदीक्षित अपने नये विश्वासों का ढिंढोरा पीटता फिरे। सुरुचि का ध्यान भी उसे न रहता। और बेचारे मेहता दिल में कटकर रह जाते थे। वह कड़ी और कड़वी आलोचना तो बड़े शौक से सुनते थे; लेकिन अपनी तारीफ़ सुनकर जैसे बेवकूफ़ बन जाते थे; मुंँह ज़रा-सा निकल आता था, जैसे कोई फ़बती छा गयी हो। और मालती उन औरतों में न थी, जो भीतर रह सके। वह बाहर ही रह सकती थी, पहले भी और अव भी; व्यवहार में भी, विचार में भी। मन में कुछ रखना वह न जानती थी। जैसे एक अच्छी साड़ी पाकर वह उसे पहनने के लिए अधीर हो जाती थी, उसी तरह मन में कोई सुन्दर भाव आये, तो वह उसे प्रकट किये बिना चैन न पाती थी।

मालती ने और समीप आकर उनकी पीठ पर हाथ रखकर मानो उनकी रक्षा करते हुए कहा--अच्छा भागो नहीं, अब कुछ न कहूँगी। मालूम होता है, तुम्हें अपनी निन्दा ज्यादा पसन्द है। तो निन्दा ही सुनो--खन्नाजी, यह महाशय मुझ पर अपने प्रेम का जाल.......